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________________ ६९ धर्म १७. धर्म वस्तु कोई बाह्य पदार्थ नहीं, आत्मा की निर्मल परिति का नाम ही धर्मं है । तब जितने जीव है सभी में उसकी योग्यता है परन्तु इस योग्यता का विकाश संज्ञी जीव के ही होता है । जो असंज्ञी हैं अर्थात् जिनके मन नहीं है उनके तो उसके विकास का कारण ही नहीं। संज्ञी जीवों में एक मनुष्य ही ऐसा है जिसके उसका पूर्ण विकास होता है । यही कारण है कि सब पर्यायों में मनुष्य पर्याय ही उत्तम मानी गई है । इस पर्याय से हम संयम धारण कर सकते हैं अन्य पर्याय में संयम की योग्यता नहीं । पञ्चेन्द्रियों के विषयों से चित्तवृत्ति को हटा लेना तथा जीवों की रक्षा करना ही संयम है । यदि इस ओर हमारा लक्ष्य हो जावे तो आज ही हमारा कल्याण हो जावे । १८. बाह्य उपकरणों की प्रचुरता धर्म का उतना साधन नहीं जितनी निर्मल परिणति धर्मका अंग है । भूखे मनुष्यको आभूषण देना उतना तृतिजनक नहीं जितना दो रोटी देना तृप्तिजनक होगा । १६. धर्म का मूल कारण निर्मलता है और निर्मलता का कारण रागादिक की न्यूनता है। रागादिक की न्यूनता पंचेन्द्रिय विषयों के त्याग से होती है । केवल गल्पवाद में धर्म नहीं होता । २०. धर्म वही कर सकता है जो निर्लोभ हो । २१. धर्म से उत्तम वस्तु संसार में नहीं । धर्म में ही वह शक्ति है कि संसारबन्धन से छुड़ाकर जीवों को सुख स्थान में पहुँचा दे | २२. धर्म तो वास्तव में निम्रन्थिके हो होता है और निग्रन्थ वही कहलाता है जो अन्तरङ्ग से भावपूर्वक हो । वैसे तो बहुत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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