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वणी-वाणी
से जीव परिग्रहविहीन हैं किन्तु आभ्यन्तर परिग्रह के त्यागे बिना इस बाह्य परिग्रह को छोड़ने की कोई प्रतिष्ठा नहीं । अतः आभ्यन्तर की ओर लक्ष्य रखना ही श्रेयस्कर है । बाह्य परिग्रह तो अपने आप छूट जाता है ।
२३.
धर्म रत्नत्रय रूप है उसमें वञ्चना के लिए स्थान नहीं । २४. धर्म का यथार्थ आचरण पाले बिना कभी भी धर्मात्मा नहीं हो सकता ।
२५. आज धर्म का लोप क्यों हो रहा है ? यद्यपि विभिन्न धर्म के अनुयायी राजा हैं पर उनका वास्तविक हितकारी धर्म नष्ट हो चुका है केवल ऊपरी ठाठ है। वे विषय में मग्न हैं और जहाँ विषयों की प्रचुरता है वहाँ धर्म को अवकाश नहीं मिल सकता | जहाँ विषय की प्रचुरता है वहाँ न्याय अन्याय का यथार्थ स्वरूप नहीं ।
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२६. धार्मिक बातों पर विचार करो तो यही कहना पड़ता है कि जिस ग्राम में मन्दिर और मूर्तियों की प्रचुरता है यदि वहां पर नया मन्दिर न बनवाया जावे, गजरथ न चलाया जावे, तब कोई हानि नहीं । वही द्रव्य दरिद्र लोगों के स्थितीकरण में लगाया जावे । उस द्रव्य के और भी उपयोग हैं जैसे :१ - बालकों को शिक्षित बनाया जावे ।
२–धर्म का यथार्थ स्वरूप समझा कर लोगों की धर्म में प्रवृत्ति कराई जावे |
३- प्राचीन शास्त्रों की रक्षा की जावे ।
४ - प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया जावे। नई नई प्रतिमायें खरीदने की अपेक्षा जगह जगह पड़ी हुई प्राचीन मनोहर मूर्तियों को मन्दिरों में विराजमान कराया जाय ।
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