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वर्णा-वाणी
१०. धर्म का व्यवहार रूप और है भीतरी रूप और है। शरीर की शुद्धता और है आत्मा की शुचिता इससे परे है। उसी के लिये यह धर्म है।
११. पुस्तकादि में धर्म नहीं। धर्म के स्वरूप के जानने में ज्ञानी जीव को पुस्तक निमित्त है।
१२. धर्म का लाभ प्रतिज्ञा पालने से नहीं होता वह तो निमित्त है, धर्म लाभ तो आत्मपरिणामों को निर्मल रखने से ही होता है।
१३. जीवों की रक्षा करना ही धर्म है। जहाँ जीवघात में धर्म माना जावे वहाँ जितनी भी बाह्य क्रिया है. सब विफल है। धर्म वह पदार्थ है जिसके द्वारा यह प्राणी संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। जहाँ प्राणी का घात धर्म बताया जावे उनके दया का अभाव है; जहाँ दया का अभाव है वहाँ धर्म का अंश नहीं, जहाँ धर्म नहीं वहाँ संसार से मुक्ति नहीं ।
१४. शास्त्र की कथा छोड़ो, अनुभव से ही देख लो, एक सुई अपने अंग में छेदो, फिर देखो आपको क्या दशा होती है। भोले संसार की वञ्चना करने के लिये अनर्थ वाक्यों की रचना कर अपनी अजीविका सिद्ध करने के लिए लोगों ने अनर्थकारी पाप-पोषक शास्त्रों की रचना कर दूसरों को ठगा और अपने को भी ठगा।
१५. धर्म के नाम पर जगत ठगाया जाता है प्रत्यक्ष ठग से धर्म ठग अधिक भयङ्कर होता है।
१६. धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है न कि शरीर से । शरीर तो सहकारी कारण है । जहाँ आत्मा की परिणति मोहादि पापों से मुक्त हो जाती है वहीं धर्म का उदय होता है।
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