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१. धर्म का मूल आशय जाने बिना धार्मिक भाव तथा धर्मात्मा में अनुराग नहीं हो सकता।
२. आत्मा की उस निश्चल परणति का नाम धर्म है, जहाँ मोह और क्षोभ को स्थान नहीं।
३. धर्म की उत्पत्ति निष्कषाय भावों में है।
४. धर्म का लक्षण मोह और क्षोभ का अभाव है। जहाँ मोह और क्षोभ है वहाँ धर्म नहीं है।
५. यद्यपि मन्द कषाय के कामों में धर्म का व्यवहार होता है । पर वास्तव में स्वरूप लीनता का नाम ही धर्म है।
६. स्थानों में धर्म नहीं, पण्डितों के पास धर्म नहीं, त्यागियों के पास धर्म नहीं, धर्म तो निग्रन्थ गुरुत्रों ने आत्मा में ही बताया है। वह अपने ही पास है। उसे दूड़ने के लिए अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं ।
७. धर्मात्मा जीव वही है जो कष्ट काल में भी धर्म न छोड़े। ८. जिनको धर्म पर श्रद्धा है उनके सभी उपद्रव दूर हो जाते हैं।
६. जहाँ धार्मिक जीवों का निवास होता है वही भूमि तीर्थ हो जाती है।
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