SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ : अनेकान्त और स्याद्वाद कुछ बड़े-बड़े विद्वान भी यह नहीं समझ सके हैं कि अनेकान्त किसे कहते हैं। इसका कारण यह है कि उन्होंने न तो अनेकान्तके असली स्वरूपको समझनेका प्रयत्न किया, न उसके स्वरूप पर निष्पक्षरूपसे विचार ही किया और न अनेकान्तसे सम्बन्धित जैन ग्रन्थोंको पढ़नेका ही कष्ट किया। अनेकान्तके विषयमें केवल अपनी ओरसे कुछ उलटी-सीधी धारणा बनाकर उसे यद्वा तद्वा कह दिया। जिन-जिन लोगोंने अनेकान्त और स्याद्वादमें दूषण बतलाये दिए हैं यदि उन्होंने अनेकान्तके स्वरूपको भीतरसे थोड़ा भी समझा होता तो वे वैसा करनेका साहस न करते । . अनेकान्त दो शब्दोंके मेलसे बना है-अनेक और अन्त । अनेकका अर्थ है एकसे भिन्न अर्थात् दो। और अन्त शब्दका अर्थ है धर्म । यद्यपि अनेकमें दोसे लेकर अनन्त धर्म आ सकते हैं लेकिन यहाँ दो धर्म हो विवक्षित हैं। प्राकृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओंमें केवल दो ही वचन होते हैं-एक वचन ( Singular ) और बहुवचन ( Plural )। इसका तात्पर्य यह है कि दो भी बहुत या अनेक हैं। अनेकान्तके विचारके समय अनेकका अर्थ अनन्त करना ठीक प्रतीत नहीं होता। अनेकान्तका ऐसा अर्थ भी किया जाता है कि अनेक रूपादि गुण और पर्याय आदिसे विशिष्ट अर्थका नाम अनेकान्त है। अर्थको अनेकान्त कहना तो ठीक है लेकिन उसको केवल अनेक धर्म सहित होनेके कारण अनेकान्त कहना ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा कहने में अनेकान्तका कोई महत्त्व नहीं रहता। जैनेतर दर्शन भी तो इस प्रकारका अनेकान्त ( अनेकधर्मात्मक अर्थ ) मानते ही हैं । ऐसा कौन-सा दर्शन है जो अर्थको रूप, रसादि विशिष्ट या सत्त्व, रज आदि अनेक धर्म विशिष्ट नहीं मानता। फिर जैनदर्शनके अनेकान्तमें विशेषता ही क्या रह जाती है। तब प्रश्न होता है कि वास्तवमें अनेकान्त क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy