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________________ अनेकान्त और स्याद्वाद : ३ इसलिए अनेकान्त और स्याद्वाद पर भी वैज्ञानिक ( Scientific ) और तार्किक ( Logical ) दृष्टिकोण ( Point of view ) से करना ठीक होगा। अनेकान्तका आधार अब यह जान लेना आवश्यक है कि अनेकान्त क्या वस्तु है। 'अनेकान्त' जैनदर्शनका सबसे बड़ा सिद्धान्त है जिसकी भित्ति पर समस्त जैनतत्त्वज्ञान स्थित है। द्रत्येक मतके दो पहलू होते हैं-एक धर्म और दूसरा दर्शन । उसमें धर्मका सम्बन्ध आचार से है और दर्शनका सम्बन्ध विचारसे है। धर्ममें यह बतलाया जाता है कि हमको कौन-कौन कार्य करना चाहिए और कौन-कौन कार्य नहीं करना चाहिये । क्या खाना चाहिये, कैसे खाना चाहिए, पूजन कैसे करनी चाहिये, सामायिक कैसे करनी चाहिये, दान किसको देना चाहिये, हिंसा नहीं करनी चाहिये, झूठ नहीं बोलना चाहिए इत्यादि बातोंका प्रतिपादन धर्म करता है। दर्शनमें इस बातका विचार किया जाता है कि तत्त्व कितने हैं, उनका स्वरूप क्या है, आत्मा क्या है, परलोक क्या है, कोई सृष्टिका कर्ता है या नहीं, जीव मरकर यहीं समाप्त हो जाता है या अगले जन्ममें जाता है, मुक्ति है या नहीं? इत्यादि । अर्थात् धर्मका मूल आचार है और दर्शनका मूल विचार है। यहाँ इस बातका ध्यान रखना भी आवश्यक है कि आचार और विचारमें घनिष्ट सम्बन्ध है। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्यका आचार उसके विचारके अनुसार ही होता है। जिसका ईश्वरमें विश्वास नहीं है वह किसी मन्दिरमें जाकर भगवान्की पूजा क्यों करेगा, जिसका अहिंसामें विश्वास नहीं है वह बलि चढ़ानेसे विमुख क्यों होगा, जिसका शान्तिमें विश्वास नहीं है किन्तु जिसका कहना है कि संघर्ष ही जीवन है वह शान्तिके वातावरणकी ओर दृष्टि न रखकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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