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अनेकान्त और स्याद्वाद : २९ जिज्ञासाओंका कारण उसके सात संशय हैं। और सात संशयोंका भी कारण उनके विषयभूत वस्तुनिष्ठ सात धर्म हैं। इस प्रकार उत्तरदाता प्रश्नोंके अनुसार सात उत्तर देता है। ये सात उत्तर ही 'सप्तभंगी' कहे गये हैं। वस्तुमें विरोधी-अविरोधी धर्मयुगल अनन्त हैं। अतः प्रत्येक धर्मयुगलकी अपेक्षासे वस्तुमें अनन्त सात-सात भंग होते हैं। अथवा अनन्त सप्तभंगियाँ बनती हैं । अर्थात् सत्त्वअसत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, नित्यत्व-अनित्यत्व आदि युगलोंसे अनन्त सप्तभंगियां सिद्ध होती हैं। जैसा कि आचार्य विद्यानन्दके निम्न कथनसे स्पष्ट हैं :
'अनन्तानामपि सप्तभंगीनामिष्टत्वात् । तत्रैकत्वानेकत्वादिकल्पनयापि सप्तानामेव भंगानामुपपत्तेः। प्रतिपाद्यप्रश्नानां तावतामेव संभवात् । प्रश्नवशादेव सप्तभंगीति नियमवचनात् । सप्तविध एव तत्र प्रश्नः कुत इति चेत् सप्तविधजिज्ञासाघटनात् । सापि सप्तविधा कुत इति चेत् सप्तधासंशयोत्पत्तेः। सप्तधैव संशयः कथमिति चेत् तद्विषयवस्तुधर्मसप्तविधत्वात् ।'
___ अष्टसहस्री पृ० १२५-१२६
आक्षेप और परिहार कुछ लोग जैनदर्शनके स्याद्वाद सिद्धान्तको लेकर आक्षेप करते हैं कि जैनदर्शनका अपना कोई मत नहीं है। उसने एक बात इस मतसे ली, एक बात उस मतसे ली, और कह दिया कि वस्तु ऐसी भी है वैसी भी है। वस्तु अनित्य है यह बौद्धमतका सिद्धान्त है । वस्तु नित्य है यह सांख्यमतका सिद्धान्त है। जैनदर्शनने दोनोंको मिला कर कह दिया कि वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। इसप्रकारके स्याद्वादसे वस्तुके स्वरूपका निर्णय होना तो दूर रहा उल्टा उसके विषय में संशय होने लगता है। इसप्रकारका आक्षेप
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