SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ : अनेकान्त और स्याद्वाद सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तताद्योतकः कथंचिदर्थे स्यात्शब्दो निपातः। पञ्चास्तिकाय टीका स्यादित्यव्ययमनेकान्तताद्योतकं ततः स्याद्वाद अनेकान्तवाद नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत् । स्याद्वादमंजरी ५ 'स्यात्' शब्दके विषयमें पहली बात यह है कि वह निपात है, दूसरी बात यह है कि वह एकान्तका निराकरण करके अनेकान्त का प्रतिपादन करता है । 'स्यात्' शब्द 'कथंचित्' शब्दका पर्यायवाची है। वह एक निश्चित अपेक्षाको बतलाता है। उसका अर्थ अनिश्चय या संशय नहीं है। जो लोग 'स्यात्' शब्दको संशय परक मानते हैं उन्हें एक बात और ध्यानमें रखना चाहिए कि 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करते समय उसके साथ 'एव' शब्द भी लगा रहता है । जैसे-स्यादस्त्येव घटः। उस 'एव' शब्दके द्वारा संशय होना तो दूर रहा उल्टा वस्तुके विषयमें दृढ़ निश्चय हो जाता है। स्याद्वादकी आवश्यकता वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। शब्दके द्वारा उस अनन्तधर्मात्मक वस्तुका प्रतिपादन एक ही समयमें संभव नहीं है। क्योंकि शब्दोंकी शक्ति नियत है। वे एक समयमें एक ही धर्मको कह सकते हैं। अनेकधर्मात्मक वस्तुका शब्दोंके द्वारा प्रतिपादन क्रमसे ही हो सकता है । इसके अतिरिक्त वस्तुके प्रतिपादन करनेका कोई उपाय नहीं है। अतः शब्दोंके द्वारा वस्तुके स्वरूपको प्रतिपादन करनेके लिए स्याद्वादको महती आवश्यकता है। स्याद्वादके बिना वस्तुका प्रतिपादन हो ही नहीं सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy