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अनेकान्त और स्याद्वाद : २१
और स्याद्वादको पर्यायवाची कह सकते हैं । 'स्याद्वाद' यह संयुक्त पद है । स्यात् और वाद इन दो पदोंके मिलने से 'स्याद्वाद' पद बनता है । स्याद्वादमें जो 'स्यात्' शब्द है उसका ठीक २ अर्थ समझना आवश्यक है । उसको ठीक तरहसे न समझ कर कई लोगोंने तो स्याद्वादका गला ही घोंट दिया है । कोई स्यात्का अर्थ संशय करते हैं तो कोई संभावना, कोई स्यात्का अर्थ कदाचित् करते हैं तो कोई स्याद्वाद के अन्तर्गत ' स्यात् ' शब्द को विधिलिङ् लकारमें निष्पन्न मानते हैं । 'स्यात्' शब्दका अर्थं शायद करके कोई स्याद्वादको सन्देहवाद कहते हैं । और कोई उसको संभावनावाद कहते हैं । ऐसे लोगों को यह जान लेना आवश्यक है कि 'स्यात्' शब्द तिङन्त नहीं है । वह एक निपात है । निपात द्योतक भी होते हैं और वाचक भी । 'स्यादस्ति' इस वाक्य में 'अस्ति' पद अस्तित्व धर्म का वाचक है और 'स्यात्' शब्द नास्तित्त्व आदि शेष अनन्त धर्मो का द्योतक होता है । 'स्यात्' शब्द यह बतलाता है कि वस्तुमें अस्तित्वके अतिरिक्त नास्तित्व आदि अन्य धर्म भी सत्ता रखते हैं । वह सन्देहका वाचक न होकर एक निश्चित अपेक्षाका वाचक है । 'स्यात्' शब्द के अर्थको यथावत् समझने के लिए जैन शास्त्रों पर दृष्टि डालने का कष्ट अवश्य करना चाहिए ।
जैन शास्त्रों में 'स्यात्' शब्द का विवरण इस प्रकार हैवाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषकः । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केवलिनामपि ॥
स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः ॥
अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः
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आप्तमीमांसा १०३ :
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आप्तमीमांसा १०४
लीयस्त्रय स्वो० भा० ३।६२ :
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