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________________ अनेकान्त और स्याद्वाद : १९ इस श्लोकके द्वारा परमागमके बोजस्वरूप, जन्मान्ध पुरुषोंका हाथीके विषयमें विधान ( एकान्त दष्टि ) का निषेध करनेवाले और एकान्तवादियोंके विरोधको दूर करनेवाले अनेकान्तको नमस्कार किया गया है। एकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा ही है और अनेकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा भी है। यथार्थमें सारे झगड़े या विवाद 'हो' के आग्रहसे ही उत्पन्न होते हैं। एक कुटुम्बमें चार व्यक्ति हैं। उनमेंसे एक कहने लगे कि कुटुम्बमें ,जितनी सम्पत्ति है उस पर मेरा ही अधिकार है तो उन लोगोंमें झगड़ा होने में देर न लगेगी। भारतमें हिन्दू, मुसलमान आदि अनेक जातियाँ रहती हैं। यदि हिन्दू कहने लगे कि भारतमें रहने का तो हमारा ही अधिकार है अन्य किसी जातिका नहों, तो ऐसी भयंकर स्थिति उत्पन्न हो सकती है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसके विपरीत यदि कुटुम्बका एक व्यक्ति यह कहे कि सम्पत्ति पर मेरा भी अधिकार है तथा अन्य लोगों का भी है, हिन्दू यह कहें कि भारतमें रहनेका हमारा भी अधिकार है तथा मुसलमान आदिका भी है तो किसी प्रकारके झगड़ेकी कोई बात ही नहीं है। बिना किसी भेदभावके सब प्रेमपूर्वक एक साथ रह सकते हैं। 'भी' सत्य का प्रतिपादन करता है। 'भी' एक न्यायाधीश है जो किसी बात पर विवाद होने पर उचित निर्णय देकर उस विवादको शान्त कर देता है। लेकिन 'ही' सत्यका संहार करता है। वह झगड़ोंको शान्त करना तो दूर रहा उल्टा झगड़ोंको उत्पन्न करता है। विवाद वस्तुमें नहीं है किन्तु देखनेवालोंकी दृष्टिमें है । जिसप्रकार पीलिया रोगवालेको या जो धतूरा खा लेता है उसको सब वस्तुएँ पोली ही दिखती हैं उसीप्रकार एकान्तके आग्रहसे जिनकी दृष्टि विकृत हो गई है उनको वस्तु एकान्तरूप ही दिखती है। लेकिन यथार्थमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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