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________________ १८ : अनेकान्त और स्याद्वाद हाथीका पूर्ण ज्ञान रखनेवाले एक सज्जन वहाँ आ पहुंचे। उन्होंने परस्परमें विवाद करनेवाले व्यक्तियोंसे उसका कारण पूछा। विवादका कारण जानकर उन्होंने कहा कि तुम सब लोग अँधेरेमें हो । तुममेंसे किसीने पूर्ण हाथीको नहीं जाना है। केवल हाथीके एक अंशको जानकर और उसीको पूर्ण हाथी समझकर आपसमें लड़ रहे हो । ध्यानसे सुनो, मैं तुमको हाथीका पूर्ण रूप समझाता हूँ। कान, पैर, पेट, सूंड़ आदि सब अवयवोंको मिलाने पर हाथीका पूर्ण रूप होता है। कान पकड़नेवाले व्यक्तिने समझ लिया कि हाथी केवल इतना और ऐसा ही है। पैर आदि पकड़नेवालोंने भी ऐसा ही समझा है। लेकिन तुम सब लोगोंका ऐसा समझना कूपमण्डूकवत् ही है। कुआमें रहनेवाला मेंढक समझता है कि संसार इतना ही है। हाथीका स्वरूप केवल कान, पैर आदि रूप ही नहीं है किन्तु कान, पैर आदि समस्त अवयवोंको मिला देने पर हाथीका पूर्ण रूप बनता है । फिर क्या था इससे सबकी आँखें खुल गईं। उन्होंने अपनी-अपनी एकान्त दृष्टि पर पश्चात्ताप किया और हाथीके विषयमें पूर्ण ज्ञानको प्राप्तकर परम शान्तिका अनुभव किया। ___ यथार्थमें अनेकान्त पूर्णदर्शी है और एकान्त अपूर्णदर्शी है। सबसे बुरी बात तो यह है कि एकान्त मिथ्या अभिनिवेशके कारण वस्तुके एक अंशको ही पूर्ण वस्तु मान बैठता है और कहता है कि वस्तु इतनी ही है, ऐसी ही है, इत्यादि। इसीसे नानाप्रकारके झगड़े उत्पन्न होते हैं। एक मतका दूसरे मतसे विरोध हो जाता है । लेकिन अनेकान्त उस विरोधका परिहार करके उनका समन्वय करता है। ऐसे अनेकान्तको शतशः प्रणाम है । कहा भी है परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। पुरुषार्थसि० २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003996
Book TitleAnekant aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1971
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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