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जीवाजीवाधिकार
कीजिये। क्या वह रुपया हैं? नहीं, यदि पाव आना में रुपये का व्यवहार किया जावे तो एक रुपये के स्थान में चौसठ रुपयों का व्यवहार होने लगेगा, जो कि सर्वथा असंगत है और यदि पाव आना रुपया नहीं है तो इसी तरह दूसरा पाव आना तथा तीसरा पाव आना आदि सभी रुपया नहीं हैं तब रुपया के व्यवहार का अपलाप ही हो जावेगा, अत: पाव आना न तो रुपया है और न रुपया से भिन्न है, किन्तु एक रुपये का १/६४ अंश है। इसी तरह वस्तु, द्रव्य के भेदाभेद की अपेक्षा दो अंशरूप है, उन दोनों अंशों की श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। यहाँ पर केवल शुद्धनय की मुख्यता से कथन है, इसीसे उसके द्वारा जानी हुई शुद्ध आत्मा की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा है। शुद्धनय से सम्यग्दर्शन का स्वरूप कहने का प्रयोजन यह है कि शुद्धनय के द्वारा प्रतिपाद्य जो आत्मा की शुद्ध अवस्था है वह उपादेय है और व्यवहारनय के द्वारा प्रतिपाद्य जो अशुद्ध अवस्था है वह हेय है। आत्मद्रव्य शुद्धाशुद्ध अवस्थाओं का पिण्ड है, अत: उन सब अवस्थाओं को लक्ष्य में रखने पर आत्मद्रव्य की पूर्णता है। आत्मा सर्वथा शुद्ध ही है अथवा सर्वथा अशुद्ध ही है ऐसी श्रद्धा एक अंश की श्रद्धा है। अथवा सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प गुण है। उसके होते ही आत्मा का जो ज्ञान है वह यथार्थ हो जाता है और उसी को उपचार से सम्यग्दर्शन कहते हैं। यही कहा है
मिथ्याभिप्रायनिर्मुक्तिर्ज्ञानस्येष्टं हि दर्शनम्।
ज्ञानत्वं चार्थविज्ञप्तिश्चर्यात्वं कर्महन्तृता।। अर्थ-जब आत्मा का विपरीत अभिप्राय चला जाता है तब उसके ज्ञान को दर्शन कहते हैं और अर्थ की विज्ञप्ति को ज्ञान कहते हैं तथा कर्म के नाश करने की शक्ति का नाम ही चारित्र है।
अतः शुद्धनयायत्तं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् ।
नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति ।।७।। अर्थ- अत: शुद्धनय के द्वारा परपदार्थ से भिन्न और अपने स्वरूप से अभिन्न आत्मज्योति का विकास होता है। वह आत्मज्योति यद्यपि नवतत्त्व के साथ मिल रही है तथापि अपना जो एकत्वपना है उसे नहीं त्यागती है।
आत्मा परपदार्थ के सम्बन्ध से नवतत्त्वों में सम्बद्ध होने के कारण यद्यपि नाना प्रकार दीखता है तथापि जब इसका पृथक विचार किया जाता है तब अपने चैतन्यचमत्कारलक्षण के कारण यह भिन्न ही है। जैसे नट नानाप्रकार के स्वांग रखकर भी अपने मनुष्यपन से एक ही है।।१२।।
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