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________________ २८ समयसार आगे भूतार्थनय से जीवाजीवादि पदार्थों का जानना सम्यग्दर्शन है, यह कहते हैं भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्ण-पावं च । आसव-संवर- णिज्जर- बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।। १३ ।। अर्थ- भूतार्थनय के द्वारा जाने हुये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष- ये सम्यक्त्व हैं अर्थात् इन नौ तत्त्वों की यथार्थ प्रतीति जिस गुण के विकास होने पर होती है उसी का नाम सम्यक्त्व है। विशेषार्थ - जबतक आत्मा में सम्यग्दर्शन गुण का विकास नही होता तबतक यह आत्मा मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी रहता है और इसी कारण परपदार्थों में अपना संकल्प करता रहता है। यद्यपि ज्ञानादि गुणों के कारण आत्मा परपदार्थों से भिन्न है, कोई भी पदार्थ अपने स्वरूप को छोड़कर अन्य रूप नहीं होता, परन्तु क्या करें ? मतवाले की तरह भ्रान्त होने से मन में जो कल्पना उठ गई उसी का उपयोग करने लगता है। कभी सत्य कल्पना भी उठती है परन्तु उसका गाढ़ श्रद्धान नहीं होता। मिथ्यादृष्टि जीव नाना प्रकार के संकल्पों द्वारा अपने को नाना मानता है परन्तु जिसके सम्यग्दर्शन का विकास हो जाता है उसका ज्ञान आस्रवादि पदार्थों को यथार्थ जानने लगता है । यही कारण है कि वह इन नव तत्त्वों में, जो संसार के कारण हैं, वे चाहे शुभ हों, चाहे अशुभ हों, उन्हें हेय समझता है और जो संसार - बन्धन का छेदन करनेवाले हैं उनमें उपादेय बुद्धि कर अपनी प्रवृत्ति करता है । इसीसे स्वामी ने लिखा है कि ये जो जीवादिक नौ तत्त्व हैं वे भूतार्थ नय के द्वारा जाने जानेपर सम्यग्दर्शन को उत्पन्न कराते हैं । ये जो नव तत्त्व हैं वे अभूतार्थ नय से कहे गये हैं क्योंकि आत्मा तो वास्तव में एक है, अखण्ड है, अविनाशी है और यह जीव, अजीव, पुण्य, पाप आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षरूप जो नव तत्त्व हैं वे भेददृष्टि से कहे गये हैं। इनमें भूतार्थ नय से देखा जावे तो जीव एक है, उसके एकपन को जानकर शुद्धनय के द्वारा निर्णीत आत्मा की जो अनुभूति है वही तो आत्मख्याति है । उसी के लिये यह नव तत्त्वों का विस्तार अभूतार्थ नय से निरूपित किया गया है। उन नव तत्त्वों में विकार्य और विकारक पुण्य और पाप ये दोनों हैं अर्थात् पुण्य और पापरूप जो आत्मा के परिणाम हैं वे स्वयं विकारयोग्य हैं और विकार के उत्पादक भी हैं। इसी तरह आस्राव्य और आस्रावक ये दोनों ही आस्रव हैं अर्थात् आस्रवभाव, आस्राव्य है और आगामी आस्रव का कारण भी है। इसी तरह संवार्य और संवारक ये दोनों संवर हैं अर्थात् संवरभाव स्वयं निरोधरूप है और आगामी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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