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________________ समयसार सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसन्ततिमिमामात्माऽयमेकोऽस्तु नः।।६।। अर्थ- शुद्धनय की दृष्टि से आत्मा अपने एकपन में नियत है, स्वकीय गुणपर्यायों में व्याप्त होकर रहता है तथा पूर्णज्ञान का पिण्ड है ऐसे आत्मा का आत्मातिरिक्त द्रव्यों से जो भिन्न अवलोकन है अर्थात् संसार के समस्त द्रव्यों से उसका पृथक् अनुभवन है, इसी का नाम सम्यग्दर्शन है। इसी के होते ही आत्मा का जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। वास्तव में ज्ञान में जो मिथ्यापन है वह स्वत: नहीं, किन्तु जबतक आत्मा में परसे भिन्न अपनी यथार्थ-प्रतीति नहीं होती तबतक यथार्थ ज्ञान भी नहीं होता। जैसे कामलारोग से पीड़ित मनुष्य शङ्ख को नहीं जानता, सो नहीं है, किन्तु कामलारोग से उसमें पीतत्व का भान करता है, रोगापहरण के अनन्तर ही उसे श्वेत शङ्ख का भान होने लगता है। इसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय में यह जीव शरीर को आत्मा मानता है, मिथ्यात्व के जाने के बाद आत्मा को आत्मा और परको पर जानता है। इस जानने में मुख्यतः मिथ्याभाव के जाने की ही महिमा है। अत: आचार्य महाराज का कहना है कि जो शुद्धनय के बल से परसे भिन्न केवल शुद्धचिद्रूप आत्मा को देखते हैं उन्हीं के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। और यह जो सम्यग्दर्शन है सो आत्मा तावन्मात्र है-सम्यग्दर्शन के प्रमाण है क्योंकि गुण और गुणी में प्रदेशभेद नहीं है। इसी से आचार्य महाराज ने कहा है कि नवतत्त्व की सन्ततिको छोड़कर हमारे केवल एक आत्मा ही हो अर्थात् पर से भिन्न शुद्ध आत्मा की प्राप्ति हो। ___ उपर्युक्त कथन का यह तात्पर्य है कि व्यवहारनय आत्मा को नानारूप से व्यवहार में लाता है। जैसे एक ही पुरुष स्वीय पिता की अपेक्षा पुत्रशब्द से व्यवहत होता है तथा स्वकीय पुत्र की अपेक्षा पिताशब्द से कहा जाता है। अपने गुरु की अपेक्षा शिष्यशब्द से प्रतिबोधित होता है तथा निज शिष्य की अपेक्षा वही गुरुशब्द से पुकारा जाता है। मातुल की अपेक्षा भानजा और भानजा की अपेक्षा मातुलशब्द से घोषित होता है..........इत्यादि नाना सम्बन्धों के होने पर भी परमार्थ से पुरुष नाना नहीं है। इसी प्रकार एक ही आत्मा व्यवहारनय से अनेक पर्यायों का आलम्बन लेने के कारण नाना होकर भी द्रव्यदृष्टि से नाना नहीं है। निश्चय और व्यवहार दोनों ही नय अपने-अपने विषय में प्रमाण हैं क्योंकि श्रुतज्ञान के अंश हैं। जैसे अशुद्धनय की दृष्टि में आत्मा नाना और शुद्धनय की दृष्टि में एक तथा प्रमाणदृष्टि में एकानेक है। वस्तुतः जो है सो है क्योंकि वस्तु अनिर्वचनीय है। केवल एक अंश का श्रद्धान सम्यग्दर्शन नहीं है क्योंकि वह तो वस्तु का एकदेश है। जैसे रुपये में चौंसठ पैसे होते हैं, अब उसमें पाव आना का विचार For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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