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जीवाजीवाधिकार
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सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव।।४।। अर्थ- निश्चय और व्यवहारनयों के विषय में परस्पर विरोध है क्योंकि निश्चयनय अभेद को विषय करता है और व्यवहारनय भेद को ग्रहण करता है, किन्तु इस विरोध का परिहार करनेवाला स्यात्पद से अङ्कित श्रोजिनप्रभु का वचन है। उस वचन में, जिन्होंने स्वयं मोह का वमन कर दिया है वे ही रमण करते हैं और वे ही पुरुष शीघ्र ही उस समय समयसार का अवलोकन करते हैं जो कि अतिशय से परमज्योतिस्वरूप है, नवीन नहीं अर्थात् द्रव्यदृष्टि से नित्य है, (केवले कर्म के सम्बन्ध से तिरोहित था, भेदज्ञान के बल से जब मोहादिसम्बन्ध दूर हो गया तब पर्यायरूप से व्यक्त हो गया) और अनय पक्ष---एकान्त पक्ष से जिसका खण्डन नहीं हो सकता।
मालिनीछन्द व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या
मिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः। तदपि परमम) चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किञ्चित् ।।५।। अर्थ- यद्यपि पहली अवस्था में जिन जीवों ने अपना पद रखा है उनके लिये व्यवहारनय का सखेद हस्तावलम्बन लेना पड़ता है तथापि परसे भिन्न चैतन्यचमत्कारमात्र परम अर्थ का जो अन्तरङ्ग में अवलोकन करते हैं अर्थात् ऐसे चिच्चमत्कारमात्र परमतत्त्व की जो श्रद्धा करते हैं उसमें लीन होकर चारित्रभाव का लाभ करते हैं उन जीवों के लिये यह व्यवहारनय कुछ नहीं है अर्थात् निष्प्रयोजन है। जैसे कोई मनुष्य किसी कार्य की सिद्धि के लिये उसके अनुरूप कारणकूट-सामग्री-को एकत्र करता था, पर कार्य सम्पन्न होने के अनन्तर उस कारणकूट-सामग्री की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। अथवा, तबतक मनुष्य नौका को नहीं छोड़ता तबतक तीर को प्राप्त नहीं हो जाता, तीर को प्राप्त हो जानेपर नौका की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। इसी तरह शुद्धस्वरूप के श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्र के प्राप्त होने पर उसके लिये अशुद्ध (व्यवहार) नय की आवश्यकता नहीं रह जाती।
शार्दूलविक्रीडितछन्द एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यान्तरेभ्यः पृथक् ।
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