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समयसार
विशेषार्थ - जैसे लोक में देखा जाता है कि जिन्होंने सुवर्ण को शुद्ध करते-करते अन्त के पाक से शुद्ध सुवर्ण की प्राप्ति कर ली है उन जीवों को प्रथमादि पाक से कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि सुवर्ण को शुद्ध करने के लिए सोलह बार ताव देने की आवश्यकता होती है, जिन्होंने सोलह ही ताव देकर शुद्धसुवर्ण की प्राप्ति कर ली उन जीवों को एकसे लेकर सोलह तक किसी भी ताव की आवश्यकता नहीं रहती। इसी तरह जो जीव अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान परमभाव — उत्कृष्ट आत्मस्वभाव का अनुभव करते हैं उन जीवों के प्रथम, द्वितीय आदि अनेक तावों की परम्परा से पच्यमान सुवर्ण के समान अपरमभाव - अनुत्कृष्ट मध्यमादि आत्मस्वभाव के अनुभव की शून्यता रहती है । अतः शुद्धद्रव्य का ही प्ररूपक होने से, जिसने कभी स्खलित नहीं होनेवाले एक आत्मस्वभाव को ही समुद्योतित—प्रकाशित किया है, ऐसा शुद्धनय ही उनके लिये प्रयोजनवान् है, किन्तु जिस तरह जो जीव अभी प्रथम, द्वितीयादि पाक से सुवर्ण की जघन्य, मध्यमादि अवस्थाओं को ही प्राप्त हो रहे हैं उन जीवों को जबतक शुद्ध सुवर्ण का लाभ न हो तबतक अपने योग्य ताव (आँच) देने की आवश्यकता है क्योंकि उन्हें अभी पर्यन्तपाक से निष्पन्न शुद्ध सुवर्ण का लाभ नहीं हुआ है। इसी तरह जिन जीवों को जबतक अन्तिम ताव से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान आत्मा के परमभाव का अनुभव नहीं हुआ है अर्थात् शुद्ध आत्मा का लाभ नहीं हुआ है तबतक विचित्रवर्णमालिका के तुल्य होने से अनेक अवस्थाओं का कथन करने वाला व्यवहारनय उनके लिये प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल की प्रवृत्ति इसी प्रकार होती है । जैसा कि कहा गया है
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जइ जिणमअं पवज्जइ तो मा ववहार- णिच्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।
अर्थ–यदि जिनेन्द्र भगवान् के मत की प्रवृत्ति चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय — दोनों ही नयों को मत त्यागो, क्योंकि यदि व्यवहार नय को त्याग दोगे, तो तीर्थ की प्रवृत्ति का लोप हो जावेगा अर्थात् धर्म का उपदेश ही नहीं हो सकेगा। फलत: धर्मतीर्थ का लोप हो जावेगा। और यदि निश्चयनय को त्याग दोगे, तो तत्त्व के स्वरूप का ही लोप हो जावेगा, क्योंकि तत्त्व को कहनेवाला तो वही है। इसी अर्थ को श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने बहुत ही सुन्दर पद्यों में कहा है
मालिनी छन्द
उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदाङ्के
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
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