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________________ जीवाजीवाधिकार २३ बाह्यपदार्थों से दुःख हुआ तो उन्हें अनिष्ट मान उनसे दूर भागने की चेष्टा करता है, और वे ही पदार्थ यदि सुख में निमित्त पड़ गये तब उनसे चिपटने की चेष्टा करता है। यहाँ पर तत्त्वदृष्टि से देखा जावे तो सभी मिथ्या विचार प्रतीत होते हैं क्योंकि जगत् में न तो कोई पदार्थ दु:खदायी है और न सुखदायी है, हमारी अज्ञानता ही उन्हें सुखकर और दु:खकर कल्पना करा रही है। जिस काल में वे पदार्थ हमारी इच्छा या रुचि के अनुकूल होते हैं उस काल में हम उनका संग चाहते हैं। मोह के कारण नाना प्रकार के अनर्थों से भी उनकी रक्षा करते हैं। यहाँ तक देखा गया है कि अपने बच्चे के लिए दयाल-से-दयालु भी मनुष्य गाय का दूध, उसके पीते हुए बालक से छीनकर पात्र में दुह लेते हैं। यह कथा तो छोड़ो, जो वस्तु हमें इष्ट है उसे स्वयं खाते हुए त्यागकर बालक के अर्थ रख लेते हैं। लोक में यहाँ तक देखा गया है कि मृगी स्वकीय बालक की रक्षा के अर्थ सिंहिनी के सम्मुख चली जाती है। इस प्रकार यह जीव अनादि काल से इन परपदार्थों में मोहित हो रहा है। उसे सत्यभूत अर्थ का बोध कराने के लिए शुद्धनय का उपदेश है-भाई! तुम्हारी आत्मा की परिणति ज्ञायकभाव से भरी हुई है, ज्ञेय का उसमें अंश भी नहीं जाता, यह जो परके साथ ज्ञेयज्ञायकसम्बन्ध है उसी में तुम्हें भ्रम से विपरीत भान होता है। वास्तव में तो तुम्हारा निजस्वरूप शुद्ध-बुद्ध है, तुम ज्ञानघन के पिण्ड हो, यह सब परपदार्थ तुमसे भिन्न हैं, इनके साथ तुम्हारा केवल ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है, इससे अधिक जो तुम्हारी कल्पना है वह संसार की जननी है। अत: यदि कल्याण के अभिलाषी हो तो इस क्लेशकारिणी कल्पना के जाल में मत जाओ और जो स्वकीय ज्ञायकभाव है उसकी भावना करो, यही भावना संसारसमुद्र से संतरण के लिये नौका का काम देगी। तब क्या व्यवहार को सर्वथा त्याग देना चाहिए? नहीं, यह हमारा तात्पर्य नहीं, जबतक यथार्थ का लाभ न हो तबतक यह भी प्रयोजनवान् है-किन्हीं जीवों के किसी काल में यह व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् है।।११।। आगे पात्रभेद से निश्चय और व्यवहार दोनों नयों की उपयोगिता दिखाते हैं सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे द्विदा भावे।।१२।। अर्थ- जो परमभाव को देखनेवाले हैं उनके द्वारा तो शुद्ध तत्त्व का कथन करनेवाला शुद्ध नय जानने के योग्य है और जो अपरमभाव में स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनय का उपदेश कार्यकारी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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