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________________ समयसार है। अत: आचार्य महाराज ने जो यह कहा है कि जो श्रुत के द्वारा अपनी आत्मा को जानता है वह परमार्थ से श्रुतकेवली है सो मनन करने योग्य तत्त्व है। इसी को यथार्थ जानने से हम अनादिविभ्रम से अपनी रक्षा करने में समर्थ हो सकते हैं।।९-१०।। आगे कोई प्रश्न करता है कि व्यवहारनय का आश्रय क्यों नहीं करना चाहिए? इसी का निम्न गाथा द्वारा उत्तर देते हैं ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो ।।११।। अर्थ- ऋषीश्वरों ने व्यवहारनय को अभूतार्थ कहा है और शुद्धनय को भूतार्थ। जो जीव भूतार्थ को आश्रित करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है। विशेषार्थ- सम्पूर्ण ही व्यवहारनय अभूत अर्थ को प्रकाशित करता है। यही बात दृष्टान्त द्वारा दिखाई जाती है। जैसे मेघों से बरसने वाला जल यद्यपि निर्मल रहता है परन्तु भूमि में पड़ते ही धूलि आदि विजातीय पदार्थों के सम्बन्ध से उसकी स्वाभाविक निर्मलता तिरोहित हो जाती है। उस कर्दम मिश्रित जल को पीनेवाले जो पुरुष हैं उन्हें कर्दम और जल का भेदज्ञान नहीं है। भेदज्ञान के अभाव से उस जल की निर्मलता का उन्हें अनुभव नहीं होता, वे मिश्रित जल को ही जल समझते हैं। परन्तु जिन पुरुषों ने मिश्रजल में कतकफल को घिसकर डाल दिया है तथा अपने पुरुषकार अर्थात् पुरुषार्थ से उसकी स्वच्छता को प्रकट कर लिया है वे वास्तविक जल का पान करते हैं और विवेकी कहलाते हैं। इसी तरह प्रबल कर्म के विपाक द्वारा आत्मा का जो सहज ज्ञायकभाव है वह तिरोहित हो जाता है उस समय जो जीव आत्मा और कर्म के भेदज्ञान करने में असमर्थ रहता है वह व्यवहार में ही मोहित नाना प्रकार की इष्टानिष्ट परिणति का अनुभवन करता है, यदि मन्दकषाय का उदय हुआ तो शुभ परिणामों का अनुभव करता है और तीव्र कषाय का उदय हुआ तो अशुभ परिणामों का अनुभव करता है परन्तु जो भूतार्थ को देखनेवाले हैं वे अपने प्रौढ़ विवेक से शुद्धनय के द्वारा आत्मा और कर्मों को पृथक्-पृथक् करते हुए अपने पुरुषकार अर्थात् पुरुषार्थ के द्वारा सहज ज्ञायकभाव को प्रकट कर उसी का अनुभव करते हैं। इसी से जो भूतार्थ का आश्रय करनेवाले हैं वे ही सम्यग्दृष्टि होते हैं और जो इनसे भिन्न हैं अर्थात् मात्र अभूतार्थ का आश्रय करते हैं वे मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। अत: कतकफलसम होने से शुद्धनय का आश्रय करना उपयुक्त है और असत् अर्थ को कहनेवाला जो व्यवहारनय है वह आश्रय करने योग्य नहीं है। यह आत्मा अनादिकाल से व्यवहार में लीन हो रहा है और इसी से अपना भला-बुरा सुख-दुःख आदि जो कुछ है उसे परपदार्थों से ही मानता है। यदि किन्हीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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