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________________ २१ जीवाजीवाधिकार विशेषार्थ- परमार्थ से यहाँ पर विचार करने में उपयोग को तन्मय करने की अति आवश्यकता है। जो केवल आत्मा को जाने वह तो निश्चय से श्रुतकेवली है और जो सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को जानता है वह व्यवहार से श्रुतकेवली है, ऐसा भेद क्यों है? इसका यह तात्पर्य है—जो आत्मा श्रुत के द्वारा केवल (परसे भिन्न) शुद्ध स्वीय आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है, यह तो परमार्थ है, और जो सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को जानता है वह व्यवहार है क्योंकि वह परकी उपाधि है। अथवा विचार करो कि जो सम्पूर्ण श्रुतज्ञान है वह आत्मा है या अनात्मा? यदि द्वितीय पक्ष का अवलम्बन करोगे तो सर्वथा ही असंगत है क्योंकि आत्मद्रव्य से भिन्न जो आकाश, काल, धर्म, अधर्म तथा पुद्गल ये पाँच द्रव्य अनात्मस्वरूप हैं, इनके बाद तो ज्ञान का तादात्म्य असंभव ही है, अतएव अगत्या ज्ञान आत्मा ही है यही तो आया। इसी से श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है-ऐसी वस्तु की व्यवस्था होने से जो केवल आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है, यही तो निष्कर्ष से आया और ऐसा जो जानना है सो परमार्थ है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानी इन दोनों में भेद का कथन करनेवाला जो व्यवहारनय है उसके द्वारा भी परमार्थमात्र आत्मा ही तो कहा गया, अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा गया। अथवा 'जो जीव श्रुत के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानता है वह श्रुतकेवली है' इस परमार्थ का प्रतिपादन करना अशक्य है, इसी से जो सम्पूर्ण श्रृतज्ञान को जानता है वह व्यवहार से श्रृतकेवली है, किन्तु यह व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादन करता है अत: इस ज्ञान से आत्मा ही की तो प्रतिष्ठा हुई, अतएव इसको भी श्रुतकेवली कहना सर्वथा उपयुक्त है। परमार्थ से तत्त्व अनिर्वचनीय है क्योंकि ऐसी व्यवस्था है जो द्रव्य, गुण व पर्यायें हैं वे सब अपने-अपने रूप में अनादिकाल से प्रवाहरूप से चले आ रहे हैं। अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य में, अन्य गुण का अन्य गुण में तथा अन्य पर्याय का अन्य पर्याय में संक्रमण नहीं होता। जब यह बात है तब ज्ञानात्मक आत्मद्रव्य कालान्तर में अनात्मद्रव्य नहीं हो सकता। आत्मा का ज्ञानगुण आत्मा में ही तादात्म्य सम्बन्ध से रहता है, अन्य द्रव्य और अन्य गुण में कभी भी संक्रान्त नहीं हो सकता। केवल यह व्यवहार है कि आत्मा पर को जानता है। वास्तव में जब यह नियम है कि ज्ञान ज्ञेय में नहीं जाता और ज्ञेय ज्ञान में नहीं जाता, तब परको जाननेवाला ज्ञान है इसका यह अर्थ है कि जिस तरह जिस समय दर्पण के सम्मुख जो पदार्थ रहता है उस समय दर्पण उस पदार्थ के निमित्त से अपनी स्वच्छता में तदाकार परिणमता है, इसी से लोग कहते हैं कि दर्पण में घटपटादिक प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, तत्त्वदृष्टि से दर्पण में दर्पण का ही परिणमन दृष्ट होता है। इसी तरह आत्मा परपदार्थों को जानता है, यह व्यवहार होता है। परन्तु परमार्थ से आत्मा आत्मपरिणाम ही को जानता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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