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समयसार
में यथार्थ कार्य करने से उसकी उपयोगिता होती है। इसी तरह परमार्थ का यथार्थ बोध कराने के व्यवहारनय का आलम्बन लेना आवश्यक है। इसी तरह के और भी लौकिक उदाहरण है— जैसे किसी ने श्रीपरमगुरु से पूछा कि - भो प्रभो मेरे लिये आत्मज्ञान की शिक्षा दीजिये - आत्मा क्या है ? यह बतलाने की कृपा कीजिये। श्रीगुरुने कहा कि - हमारे सामने बहने वाली गङ्गा नदी में एक मगर रहता है। उसे अच्छी तरह आत्मज्ञान करा दिया है। वह तुम्हे अच्छी तरह आत्मज्ञान का उपदेश देगा, उससे पूछ लो । श्रीगुरु के ऐसे वचन सुनकर वह सरलप्रकृति का शिष्य गुरुवाक्य को प्रमाण करता हुआ सन्निहित गङ्गा नदी के तीर गया और उस मगर से बोला- भाई ! हमको गुरुमहाराज ने तुम्हारे पास आत्मज्ञान के उपदेश के अर्थ भेजा है। मगर ने उसके वाक्य सुनकर प्रसन्नता के साथ कहा – महानुभाव ! मैं इस समय तृषा से अति-आतुर हूँ, आप एक लोटा पानी कूप से लाकर मुझे पहले पिला दीजिये, मैं पश्चात् निश्चिन्त होकर आपको उपदेश करूँगा। यह सुनकर शिष्य मन-ही-मन उसकी मूढ़ता पर पश्चात्ताप करता हुआ मगरसे बोला- भाई ! तुम बड़े अज्ञानी हो, पानी में सर्वाङ्ग डूबे हुए भी हमसे जल माँगने की चेष्टा करते हो, तुम क्या आत्मज्ञान का उपदेश करोगे ? मगर बोला - महानुभाव ! आपका कहना अक्षरशः सत्य है किन्तु अपने अज्ञान को भी तो देखो। तुम स्वयं आत्मा होकर आत्मज्ञान की बात पूछते हो। यही बात तो तुम्हारे आत्मज्ञान की बाधक है। ऐसा सुनकर वह स्वयं प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। इस प्रकार अनेक दृष्टान्तों से व्यवहार के द्वारा निश्चय का उपदेश दिया जाता है ॥ ८ ॥
आगे परमार्थ और व्यवहारनय से श्रुतकेवली का स्वरूप कहते हैं
जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुयकेवलिमिसिणो भांति लोय- प्पईवयरा ।।९।। जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलिं तमाहु जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जा सुयकेवली तह्मा ।।१०।।
(जुग्म)
अर्थ- जो जीव निश्चयकर इस अनुभवगोचर केवल (ज्ञेयभिन्न) शुद्ध आत्मा को श्रुत के द्वारा सम्यक् प्रकार जानता है उसे लोक के प्रदीपक गणधरादि महाऋषि श्रुतकेवली कहते हैं, अर्थात् ऐसे जीव को परमार्थ श्रुतकेवली जानना । तथा जो सम्पूर्ण श्रुतज्ञान को जानता है वह भी श्रुतकेवली है, ऐसा जिन भगवान् कहते हैं क्योंकि सम्पूर्ण जो ज्ञान है वह भी आत्मा ही है परन्तु वह व्यवहार श्रुतकेवली है।
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