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जीवाजीवाधिकार
जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं ।।८।।
अर्थ- जिस तरह अनार्य मनुष्य अनार्यभाषा के बिना अभिप्रेत वस्तुस्वरूप के ग्रहण करने को समर्थ नहीं हो सकता उसी तरह व्यवहारी जीव व्यवहारनय के बिना परमार्थ के समझने में समर्थ नहीं हो सकता।
विशेषार्थ- जिस तरह कोई ब्राह्मण किसी म्लेच्छों के नगर में चला गया। वहाँ उन लोगों ने भव्यमूर्ति ब्राह्मण को देखकर अपनी भाषा में अभिवादन कर दोनों हाथों को मस्तक से लगा कर नमस्कार किया। ब्राह्मण ने उनकी नम्रता देखकर प्रसन्नता से उन्हें कहा—'तुभ्यं स्वस्ति'। इस वाक्य को श्रवणकर वे लोग कुछ भी वाच्यार्थ को न जान सके, अत: मेड़ा की तरह ब्राह्मण की ओर अनिमिष नेत्रों से देखने लगे। तब दुभाषिया ब्राह्मण ने म्लेच्छ भाषा को लेकर उन्हें 'स्वस्ति' शब्द का वाच्यार्थ समझाया कि इसका अर्थ 'आप लोगों का कल्याण हो' यह है। जब उनकी समझ में 'स्वस्ति' पद के अर्थ का बोध हुआ तब एकदम उनके हृदय में आनन्द का उदय होकर इतना हर्ष हुगा कि आँखों में हर्ष के आँसू छलक आये
और शरीर में रोमाञ्च हो गये। इसी तरह संसारी मनुष्य से श्रीगुरु ने कहा कि आत्मा है। इसे श्रवणकर संसारी मनुष्य भी उसी अनिमिष नेत्रों से आत्मा की बात को कहनेवाले श्रीगुरु की ओर देखने लगा और आश्चर्य से चकित हो गया। तब व्यवहार
और परमार्थ पथ को जाननेवाले आचार्य महाराज ने कहा कि-भाई दर्शनज्ञान-चारित्र को जो प्राप्त करता है वही तो आत्मा है अर्थात् जो देखने-जानने वाला है वही आत्मा है। इस वाक्य को श्रवण कर वह एकदम प्रसन्नता के रस में मग्न हो गया, आनन्द के आँसू उसके नेत्रों में आ गये और एक बार ही आत्मविषयक अज्ञान की निवृत्ति होने से नि:संदेह हो गया। जब ऐसी वस्तुस्थिति है तब म्लेच्छ भाषा के सदृश व्यवहारी मनुष्य को बोध कराने के लिए व्यवहारनय का अवलम्बन लेना चाहिये। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि ब्राह्मण को म्लेच्छ रूप हो जाना चाहिये।
लोक में भी परमार्थ पदार्थ के समझाने के लिए ऐसे अवलम्बन लिये जाते हैं। जैसे सेना में जो रंगरूठ भरती होता है उसे बाण द्वारा लक्ष्यवेध सिखाया जाता है। यद्यपि वहाँ पर उस लक्ष्यवेध से किसी साध्य की सिद्धि नहीं, तथापि रणक्षेत्र में जब शत्रुओं पर बाण छोड़ने का काम पड़ता है तब वह विद्या उपयोग में आती है। अथवा जिस तरह बचपन में छोटी-छोटी लड़कियाँ मिट्टी का आटा गूनकर उसकी रोटियाँ बनाती हैं तथा मिट्टी की हण्डियाँ बनाकर उनमें छोटे-छोटे कंकड़ डाल दाल बनाने का व्यवहार करती हैं। यद्यपि यह सब उनका खेल है परन्तु बड़ी अवस्था
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