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समयसार
अहम्प्रत्ययवेद्यता ही आत्मतत्त्व की ज्ञापक (साधक) है। 'अहं सुखी', 'अहं दुःखी' – मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ- ऐसा बोध जिसमें होता है, वही तो 'अहं' पद वाच्य आत्मा है।
यह प्रत्यय मिथ्यात्वी और सम्यक्त्वी दोनों के होता है। भेद इतना है— जो सम्यग्ज्ञानी जीव केवल आत्मा की श्रद्धा करता है, और मिथ्यात्वी द्रव्यान्तर के मिलाप सहित आत्मा का अनुभव करता है।
समयसार पर लिखना अथवा प्रवचन करना सामान्य नहीं। मैंने जो कुछ लिखा, प्रवचन किया सो दुर्बल अवस्था में। समय यदि अच्छा आया, कुछ करूँगा, परन्तु आना कठिन है।
गणेश वर्णी
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