SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार की महिमा श्री कुन्दकुन्द आचार्य को बारम्बार नमस्कार हो। उन्हीं का यह वास्तविक महोपकार है जो आज इस भारतभूमि में अध्यात्म का विस्तार से प्रचार हो रहा है। जिन्होंने उनके द्वारा निर्मित समयसारादि शास्त्रों का अवलोकन किया, उन्होंने वास्तविक आत्मस्वरूप का अनुभव किया। जिनकी बुद्धि सूक्ष्म है- वे तो समयसार की प्रथम गाथा से ही सर्ववस्तुस्वरूप जानने के सपात्र हो जाते हैं। प्रथम गाथा में सर्व सिद्ध-भगवान् को नमस्कार किया। इससे यह तत्त्व दृष्टि में आता है कि प्रत्येक आत्मा में सिद्धपर्याय शक्ति रूप से विद्यमान है तथा नमस्कार करने से यह तत्त्व समझ में आता है कि आत्मा सर्वथा शुद्ध नहीं। आत्मा नामक वस्तु एक है। उसकी २ अवस्थाएँ हैं- १. सिद्धपर्यायरूप और २. असिद्धपर्यायरूप। ___परमार्थदृष्टि से आत्मा अनुपम और अखण्ड है। परन्तु जब पर्यायदृष्टि से विचार किया जाता है तब अनेक प्रकार से उस आत्मा का निरूपण होता है। यही 'संसारिणो मुक्ताश्च' (त० सू० २-१०) सूत्र में जीव की दो अवस्थाओं द्वारा सब अवस्थाओं का वर्णन किया है। वह कथन पर्यायदृष्टि से आत्मतत्त्व का है। केवल दृष्टि से किया हुआ अनुभव यथार्थ नहीं है। दूसरी गाथा में इसका विस्तार से वर्णन है। वह इस प्रकार हैजीवो चरित्त-दंसण-णाणट्ठिओ हि ससमयं जाण। पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं।। २।। इस गाथा में यह दिखाया गया है कि जो जीव दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित है उसे स्वसमय कहते हैं और जो पद्गलकर्मप्रदेशों में स्थित है उसे परसमय कहते हैं। ये दोनों पर्याय हैं- जिनमें वही जीव है। यद्यपि ये दोनों पर्यायें जीव की हैं, परन्तु इनमें एक पयार्य आत्मा को आकुलता की जननी होने से त्याज्य है और दूसरी पर्याय उपादेय है। उसी की प्राप्ति का उपाय रत्नत्रयरूप पुरुषार्थ है। समयसारग्रन्थ अपूर्व आत्मप्राप्ति का साधन है। सर्वसे प्रथम समय (आत्मा)- सार प्राप्ति के लिये आत्म-तत्त्व को जानने की आवश्यकता है। उसका मूल उपाय 'अहं प्रत्यय' है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy