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प्रकाशकीय
(प्रथम संस्करण)
गत अक्तूबर १९६८ में श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला से 'आदिपुराण में प्रतिपादित भारत' नाम का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था । विद्वत्संसार और सामान्य पाठक-जगत् में इस ग्रन्थ का जो समादर एवं स्वागत हुआ वह उल्लेखनीय तथा प्रसन्नतावर्धक है। मार्च १९६९ में 'सत्य की ओर' कृतिका ग्रन्थमाला ने प्रकाशन किया। यह एक छोटी-सी रचना है, पर समाज में इतनी माँग हुई कि एक वर्ष भी पूरा नहीं हुआ कि यह संस्करण समाप्तप्राय है।
हमें अत्यधिक प्रसन्नता है कि जिन प्रशममूर्ति आध्यात्मिक सन्त के प्रति कृतज्ञता ख्यापन एवं स्मृति में ग्रन्थमाला संस्थापित हुई उन्हीं ज्ञानप्रसारक परोपकारी महामना श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी (अन्तिमावस्था में मुनिराज गणेशकीर्ति) का 'समयसार - प्रवचन' आज प्रकट हो रहा है।
इस प्रकार ग्रन्थमाला एक वर्ष के भीतर अपने पाठकों एवं संरक्षक सदस्यों को तीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ देने में समर्थ हो सकी है। हम नहीं जानते कि इतनी जल्दी इन ग्रन्थ रत्नों के प्रस्तुत करने में कौन-सी दैवी शक्ति काम कर रही है। हमें तो लगता है कि पूज्य वर्णीजी का परोक्ष प्रभावपूर्ण पुण्य कार्य कर रहा है, जिसके कारण समाज के उदार सज्जन संकेत या प्रेरणा पाते ही अपना आर्थिक सहकार सदा देने को तैयार रहते हैं । हमारा अनुभव दृढ़ होता जाता है कि समाज उचित दिशा में आर्थिक सहायता दिल खोलकर देती है ।
समयसार-प्रवचन के प्रकाशन के साथ एक कहानी है। वर्णीजी इसे प्रकाशित नहीं करना चाहते थे। उनके निकट सूत्र जब उसके प्रकाशन के लिए उन पर जोर देते थे, तो वे इतना ही कहकर उन्हें टाल देते थे कि भैया ! कुन्दकुन्द महाराज और अमृतचन्द्रस्वामी की सूर्य-चन्द्र प्रकाश की तरह प्रकाशक कृतियों के सामने मेरा जुगुनू से भी कम प्रकाशक प्रवचन क्या लाभदायी होगा ? - उससे कोई लाभ नहीं होगा। जब उनसे पुनः कुछ काल बीतने पर कहा जात, तब भी वे वही उपर्युक्त उत्तर देते थे। इससे कुछ लोगों की यह धारणा हो गयी थी कि वर्णीजी जब उसका प्रकाशन नहीं चाहते और उसे न्यून बतलाते हैं तो उसे प्रकाश में नहीं
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