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________________ समयसार लाना चाहिए। किन्तु एक दूसरा पक्ष था, जो उसे प्रकाश में लाने के लिए उत्सुक था। इस पक्ष का कहना था कि जब सावन की अन्धेरी में चन्द्र का प्रकाश नहीं होता तब पथिक जुगुनू के अल्प प्रकाश के सहारे अपना मार्ग तय कर लेते हैं। आपका प्रवचन भले ही विद्वानों के लिए उपयोगी न हो, किन्तु सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो कुन्दकुन्द महाराज और अमृतचन्द्रस्वामी की कृतियों का रसास्वाद लेना चाहते हैं, पर अपनी बुद्धिमन्दता के कारण वे उनका रसास्वाद नहीं ले पाते — वे उससे वञ्चित रहते हैं। आपकी कृति के सहारे वे उसका भी रसास्वाद ले सकेंगे । वर्णीजी इन्हें भी टाल देते थे। अन्ततोगत्वा उनके समक्ष समयसार - प्रवचन का प्रकाशन न हो सका। vi डॉ॰नरेन्द्रकुमारजी एम०ए०, साहित्याचार्य पूज्य वर्णीजी के उपदेशों और पत्रों का सम्पादन कर चुके थे और उसका प्रकाशन 'वर्णी-वाणी' के नाम से अनेक भागों में वर्णी-ग्रन्थमाला कर चुकी थी। उनकी तीव्र भावना थी कि वर्णीजी का समयसार-प्रवचन अवश्य प्रकाशित होना चाहिए। इसके लिए उन्होंने लाला फिरोजीलालजी दिल्ली को प्रेरित किया और उनके आर्थिक द्रव्य से मूल ग्रन्थ की फोटो-कापी लिवायी। ला०फिरोजीलालजी ने पुत्र गोद की रस्म पर १० मई १९६७ को हमें दिल्ली बुलाया। डॉ० नरेन्द्रकुमारजी भी पहुँच गये थे। तय हुआ कि समयसार प्रवचन का प्रकाशन वर्णी - ग्रन्थमाला के तत्त्वावधान में लालाजी अपने 'वर्णी अहिंसा प्रतिष्ठान' से करें और मूल प्रति पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन उदासीनाश्रम ईसरी से हम मंगा लें । परन्तु कुछ महीनों बाद दुर्भाग्यवश उक्त व्यवस्था टूट गयी और हम निराश होकर चुप हो गये। दो वर्ष बाद लोगों की प्रेरणा से, जिसमें सम्पादकजी की प्रेरणा विशेष थी, वर्णी - ग्रन्थमाला से उसे प्रकाशित करने का निश्चय किया गया। जैसा कि सम्पादकीय में सम्पादकजी ने उल्लेख किया है कि सम्पादित पाण्डुलिपिका मूल ग्रन्थ से मिलान और संशोधन का कार्य श्रीमान् पं० जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनी ने किया है। निस्सन्देह उनका यह योगदान स्तुत्य है । अनेक ग्रन्थों के सुयोग्य संशोधक, टीकाकार और सम्पादक श्रीमान् पण्डित पन्नालालजी वसन्त, साहित्याचार्य ने पूज्य वर्णीजी की 'मेरी जीवनगाथा' के दोनों भागों की तरह इसका भी तत्परता, परिश्रम और सच्चे साहित्यकार की भाँति सम्पादन किया है। यद्यपि उनकी यह सम्पादित पाण्डुलिपि कुछ महीनों में ही तैयार हो गयी थी, किन्तु ग्रन्थमाला के सामने तत्काल आर्थिक कठिनाई होने और नयी व्यवस्था के जमाने में श्रम और समय अपेक्षित होने से कुछ विलम्ब हो गया। साहित्याचार्यजी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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