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________________ प्रकाशकीय vii लिए हुए किसी भी दायित्व में प्रमाद करना नहीं जानते । विद्वानों की नयी पीढ़ी दोही साहित्यिक विद्वान् नजर आते हैं जो तत्परता और शीघ्रता से साहित्यिक कार्यों को गति देते और उन्हें मूर्त रूप प्रदान करते हैं । वे हैं साहित्याचार्यजी और डॉ॰नेमिचन्द्रजी शास्त्री आरा। हमें इन विद्वानों पर गर्व है और खुशी की बात है कि ग्रन्थमाला को इन दोनों विद्वानों का सहकार प्राप्त है। डॉ० नेमिचन्द्रजी तो सहयोगी मन्त्री भी हैं। प्रस्तावना में सम्पादक जी ने कुन्दकुन्दस्वामी, उनके समयसार एवं अन्य ग्रन्थों, टीकाकारों, टीकाग्रन्थों और ग्रन्थ-विषय का विस्तार से परिचयात्मक ऊहापोह किया है। अत: इस सम्बन्ध में और विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, एक अन्वेषकदृष्टि से कुन्दकुन्द के विदेह-गमन के प्रकाशक प्रमाणों की खोज निरन्तर जारी रहना चाहिए। साथ ही देवसेन के दर्शनसारगत उल्लेख पर, जिसमें कुन्दकुन्द के विदेहगमन का स्पष्ट निर्देश है, सन्देह नहीं किया जाना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द का 'सुय-केवली- भणियं ' (१ - १) विशेषण विशेष ध्यातव्य है । अमृतचन्द्रसूरि ने इसका अर्थ 'श्रुतप्रकाशित और केवली भणित' किया है, जिसका तात्पर्य है कि कुन्दकुन्द ऐसे ‘समय- पाहुड' की रचना कर रहे हैं जो श्रुत (श्रुतकेवली अथवा आगम) और केवली प्रतिपादित है। इससे जहाँ उसमें स्वरुचिविरचित तत्त्व का परिहार किया गया है, वहाँ श्रुतकेवली प्रकाशित और केवली कथित तत्त्व होने से प्रामाणिकता भी प्रकट की गयी है । अतएव समीक्षकों एवं ऐतिहासिकों के लिए कुन्दकुन्द का यह विशेषण और अमृतचन्द्रसूरिकृत उसका व्याख्यान उपेक्षणीय नहीं है। प्रमाणों के सामने आने पर कुन्दकुन्द के विदेहगमन पर और अधिक प्रकाश पड़ सकता है। ऊपर कहा गया है कि वर्णी- ग्रन्थमाला समाज के आर्थिक सहकार पर निर्भर है। अतएव इसके प्रकाशन की एक योजना बनायी गयी कि यदि कुछ महानुभाव प्रस्तुत ग्रन्थ की १००, ५०, २५, १० आदि प्रतियाँ खरीद लें या उतनी प्रकाशन-सहायता दे दें तो यह ग्रन्थ सरलता से प्रकाश में आ जायेगा। तदनुसार हमने कुछ पत्र लिखे और कुछ स्थानों पर गये। हमें प्रसन्नता हैं कि लगभग ३००-४०० प्रतियों के पेशगी ग्राहक या सहायक हो गये। आज इन्हीं उदार सज्जनों के सहयोग से केवल साढ़े तीन माह में ग्रन्थ छपकर तैयार हो गया। हम इन सभी आर्थिक सहयोगियों के आभारी हैं। यदि लाला फिरोजीलालजी, जो पूज्य वर्णीजी के परमभक्तों में से हैं और बड़े उदार प्रकृति के हैं तथा डॉ० नरेन्द्रकुमारजी, जिन्होंने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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