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समयसार
में पाया जाता है। संसार अवस्था में आत्मा क्षीरोदकवत् कर्मपुद्गलों के साथ एकमेक हो रहा है किन्तु एक नहीं हो जाता है। जेसे दूध और जल संयुक्तावस्था में एकमेक हो रहे हैं परन्तु दूध है सो जल नहीं और जल है सो दूध नहीं। यद्यपि वस्तुस्थिति ऐसी है किन्तु मिलितावस्था में लोग कहते हैं कि पनीला दूध है, फीका दूध है। जैसे सवर्ण और रजत दोनों का मिलाप होने से लोग मिश्रितावस्था में उस पिण्ड में खोटे सोने का व्यवहार करते हैं। चार आना भर सोना और चार आना भर चाँदी दोनों मिलकर आठ आना भर हुए। वहाँ पर विचार से देखा जावे तो सोना चार आना भर ही है। उस सोने का द्रव्यदृष्टि से कुछ भी घात नहीं हुआ है और न उसके मूल्य में कुछ हानि हुई है क्योंकि मिश्रितावस्था में उसका मूल्य बीस रुपया तोला हो गया। किन्तु शुद्ध सोना से उस खोटे सोने का चाँदी के संयोग से वजन आठ आना भर हो गया अत: उसके मूल्य के दस रुपये मिल गये। यह सब हुआ, किन्तु शुद्ध सोने में जो गुण हैं वे चाँदी के सम्बन्ध से विकृत हो गये, इसलिये शुद्ध सुवर्ण द्वारा जो लाभ होता है वह अशुद्ध सुवर्ण से नहीं होता।
___ यही अवस्था आत्मा की कर्मों के सम्बन्ध से हो जाती है आर्थात् आत्मा के जो ज्ञान-दर्शन गुण हैं वे विकृत हो जाते हैं। ज्ञान-दर्शन का काम जानना और देखना है परन्तु उनमें कर्मोदयजन्य विकार होने से इष्टानिष्टरूप नाना प्रकार का भाव होने लगता है। जैसे शङ्ख श्वेत है, परन्तु जिसे कमला रोग हो गया है वह शङ्ख को देखता तो है परन्तु उसमें पीतगुण का आरोप करता है, वास्तव में शङ्ख पीत नहीं। इसी प्रकार संसार में मोहादिक कर्मों के उदय में आत्मा में राग-द्वेष-मोह विकार हो जाते हैं। उनके सम्बन्ध से यह आत्मा अपने ज्ञानगुण के द्वारा जानता तो है परन्तु विकारी परिणामों के सहवास से कभी तो मिथ्याभिप्राय से परपदार्थ में आत्मसंकल्प करता है और कभी राग-द्वेष के द्वारा इष्ट-अनिष्ट का विकल्प करता है। उसका फल यह होता है कि परदार्थ में आत्मत्व की कल्पना करता है और रागादिके विभावों को अपना स्वभाव मानने लगता है। इन्हीं विभावों के द्वारा अनन्त संसार में यातायात करता हुआ चतुर्गति सम्बन्धी पर्यायों में परिभ्रमणजन्य अनेक प्रकार के अनिर्वचननीय दुःखों का पात्र होता है।
जब इस जीव के काललब्धि का उदय आता है तब यह मिथ्याभाव से मुक्त होता है और सम्यक्त्वगुण के विकास को प्राप्त होता है। क्रम से देशव्रतादि को धारण करता हुआ मोक्ष का पात्र होता है। उस समय इसको सिद्ध कहते हैं। इस प्रकार जीवों की मुख्यतया दो पर्यायें हैं—एक संसारी और दूसरी सिद्ध। संसार में मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान पर्यन्त के जीवको प्रमत्त कहते हैं और सातवें गुणस्थान से लेकर जीव की चौदहवें गुणस्थान तक जितनी भी पर्यायें होती
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