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जीवाजीवाधिकार
हैं उन्हें अप्रमत्त कहते हैं। उनके जबतक आयु का सम्बन्ध है तबतक गुणस्थानव्यवहार होता है, बाद में गुणस्थानातीत होने पर उन्हें सिद्ध कहते हैं।
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सामान्य
जीव में यह जो व्यवहार होता है वह विशेष की अपेक्षा होता है, की अपेक्षा नहीं होता। इसी से कुन्दकुन्द महाराज ने लिखा है कि जीव न तो प्रमत्त है और न अप्रमत्त है किन्तु ज्ञायकभाव वाला है। ऐसा नहीं कि पदार्थों के जानने से ज्ञायक है किन्तु स्वभाव से ज्ञायक है। जैसे इन्धन को जलाने से अग्नि दाह्याकार होती है, वह आकार अग्नि ही का है दाह्य पदार्थ का नहीं। वैसे ही घटपटादि पदार्थों का जो आकार ज्ञान में भासमान होता है वह आकार घटपटादि से भिन्न ही है। ज्ञान की ज्ञातृता ही ऐसी है कि उसमें स्वपरावभासन हो रहा है। जैसे रूपी दर्पण में ऐसी स्वच्छता है कि उसमें वह्नि दिखती है एतावता उसमें उष्णता और ज्वाला नहीं है। इत्यादि कथन से आत्मा को निराबाध ज्ञायकस्वरूप ही मानना अबाधित प्रमाण का विषय है। अतएव जीव जिस तरह परपदार्थों के जानने के समय ज्ञायक है उसी तरह स्वरूप प्रकाशन के समय भी ज्ञायक है । । ६ ।।
आगे ऐसा जो आत्मा है वह ज्ञान, दर्शन और चरित्र से अशुद्ध नहीं हो सकता है, यही दिखाते हैं
ववहारेणुवदिस्सर णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं ।
ण वि णाणं ण चरित्तं न दंसणं जाणगो सुद्धो ।।७।।
अर्थ- ज्ञानी जीव के व्यवहार द्वारा ज्ञान, दर्शन और चरित्र कहे जाते हैं अर्थात् आत्मा ज्ञानी है, चारित्र वाला है, दर्शन वाला है । निश्चय कर उसके न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है किन्तु एक ज्ञायक है, इसी से शुद्ध है ।
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विशेषार्थ- इस तरह ज्ञायकभाव से शुद्धात्मा में बन्ध के कारणों से अशुद्धता कहना दूर रहो, किन्तु दर्शन, ज्ञान, चारित्र भी उसमें विद्यमान नहीं हैं। अतः इनके निमित्त से जायमान अशुद्धता भी कैसे हो सकती है ? वास्तव में द्रव्यदृष्टि से देखा जावे तो कोई भी पदार्थ अशुद्ध नहीं होता। इसका तात्पर्य यह है कि बन्ध जहाँ होता है वहाँ दो पदार्थों का होता है । यहाँ बन्ध का यह अर्थ ग्राह्य नहीं कि जिन पदार्थों का बन्ध होता है वे दोनों मिलकर अभिन्न हो जाते हैं किन्तु दोनों पदार्थ अपने-अपने स्वाभाविक परिणमन को छोड़कर विजातीय अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे दो परमाणु परस्पर में जब बँधते हैं तब उन्हें द्व्यणुकशब्द से कहते हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि दोनों परमाणु तादात्म्य सम्बन्ध से एक हो गये । अथवा यहाँ तो दोनों पुद्गल के परमाणु हैं अत: उनमें जो पुद्गल सम्बन्धी रूप-रस-गन्ध-स्पर्श हैं उन्हीं का परिणमन विशेषरूप से हो जाता है । परन्तु जीव और पुद्गल का जो
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