________________
जीवाजीवाधिकार
अर्थ- जो ज्ञायकभाव है वह अप्रमत्त भी नहीं और प्रमत्त भी नहीं, इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं । वह जो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है, अन्य नहीं है ।
विशेषार्थ- यहाँ पर आत्मा के उस सामान्यभाव का ग्रहण किया गया है जो कालत्रयव्यापी रहता है। आत्मा की यों तो अनन्त अवस्थाएँ होती हैं किन्तु वे सब प्रमत्त और अप्रमत्त में अन्तर्गत हो जाती हैं। आत्माद्रव्य अनादिकाल से पुद्गल के साथ सम्बद्ध होकर चला आया है और इसी से इसकी यह नाना पर्यायें संसार में होती हैं। आत्मा की संसार और मुक्त ये दो अवस्थाएँ मुख्य हैं। इनमें संसार अवस्था कर्मों के विपाक के निमित्त से नाना प्रकार की होती है और मुक्तावस्था कर्मों के अभाव से एक ही प्रकार की है। अतः जब सामान्य की अपेक्षा निरूपण किया जाता है तब इस प्रकार का कथन होता है कि जो आत्मा है वह अनादि और अनन्त है, नित्य ही उद्योतरूप है, एक ज्ञायकपदार्थ है । उसी आत्मा का जब पर्यायों की दृष्टि से निरूपण किया जाता है तब कथन होता है कि वह संसार दशा में अनादिकालीन बन्धपर्याय के द्वारा दुग्ध और जल की तरह कर्म पुद्गलों के साथ एक हो रहा है । यद्यपि वर्तमान में आत्मा का कर्मपुद्गलों के साथ क्षीर-नीर के समान एकक्षेत्रावगाह हो रहा है तथापि द्रव्यदृष्टि से यही बात कथन में आती है कि दुःख ही अन्त में जिससे होता है ऐसे कषायचक्र के उदय की विचित्रता से पुण्य और पाप को उत्पन्न करनेवाले जो शुभ और अशुभ भाव हैं उन रूप स्वभाव से आत्मा नहीं है अर्थात् आत्मा में पुण्य और पाप को उत्पन्न करनेवाले जो शुभ और अशुभ भाव होते हैं वे विकारी भाव हैं, वर्तमान आत्मा में होते हैं परन्तु मन्दकषाय के उदय से होते हैं, औपाधिक हैं, कर्मनिमित्त के मिटने से मिट जाते हैं। अत: पर्यायदृष्टि में तो वे हैं, परन्तु द्रव्यदृष्टि से विचार करने पर नहीं हैं। अतएव स्वभाव से आत्मा न तो प्रमत्त है और न अप्रमत्त है । वह तो अशेष द्रव्यान्तरों से तथा उनके निमित्त से होनेवाली पर्यायों से भिन्न शुद्धद्रव्य है । यह कथन नयविवक्षा से है। सर्वथा यह नहीं समझना चाहिए कि आत्मा प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं है। आत्मा प्रमत्त भी है और अप्रमत्त भी है। ये दोनों अवस्थाएँ विशेष हैं । किन्तु इनसे कथञ्चिद् भिन्न सामान्य भी एकरूप है। उसकी दृष्टि में ये दोनों अवस्थाएँ गौण हो जाती हैं। प्रमाण की दृष्टि में पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है। जैसे जिस समय अग्नि इन्धन सहित होती है उस समय उसमें ज्वाला भी निकलती है और धूम भी निकलता है। यद्यपि उस समय अग्नि में ज्वाला भी है और धूम भी है किन्त सर्वकाल उनका सद्भाव न होने से वह अग्नि का स्वरूप नहीं । सामान्यरूप जो सर्वत्र पाया जावे वही अग्नि है अर्थात् अग्नित्वसामान्य ही अग्नि का सामान्य स्वरूप है। इसी तरह आत्मा न प्रमत्त है। और न अप्रमत्त, किन्तु ज्ञायकसामान्यस्वरूप है क्योंकि यह रूप सब अवस्थाओं
Jain Education International
१५
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org