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________________ १४ समयसार तो ऐसा तीव्र मोह प्राणियों के है कि मदिरा के प्रबल वेग के समान उन्हें अपना-पराया कुछ विवेक ही नहीं। अगृहीत मिथ्यात्व के द्वारा पर्याय में ही आपा मान निरन्तर संसार के ही पात्र रहते हैं। धर्म और अधर्म, आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से वञ्चित रहते हैं-मोक्षमार्ग के अनुकूल हेय और उपादेय के ज्ञान से रहित रहते हैं। आहारादि संज्ञाओं का ज्ञान होनेपर भी मोक्षमार्ग के अनुकूल आस्रवादि पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। मोक्षमार्ग में उपयोगी ये सात ही तत्त्व हैं। अतएव श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' कहा है। पिपीलिका की प्रवृत्ति शर्करादि में देखकर उसके ज्ञान को मोक्षमार्गानुकूल ज्ञान नहीं कह सकते। आजकल विज्ञान का चमत्कार देख बहुत से मनुष्य प्रशंसा के पुल बाँध देते हैं। एतावता वह ज्ञान मोक्षामार्ग की श्रद्धा में उपयोगी नहीं हो जाता। जिस ज्ञान के द्वारा आत्मा को संसार में रुलना पड़े वह ज्ञान मोक्ष के अनुकूल नहीं हो सकता। धनादि पदार्थों के द्वारा संसार में प्राय: आपत्तियों के अतिरिक्त क्या हो सकता है? अत: सप्ततत्त्व से भिन्न जो भी पदार्थ हैं उनका ज्ञान मोक्षमार्ग में सहकारी नहीं। ___ सबसे पहले हमें आत्मा और अनात्मा पदार्थों के जानने का प्रयत्न करना चाहिये। यह ज्ञान आगम के बिना नहीं हो सकता। आगमज्ञान के लिये हमें परम्परागुरुओं के उपदेश की परमावश्यकता है तथा आगम के द्वारा जो पदार्थ ज्ञात किये हैं उनमें जो सूक्ष्म नहीं है उन्हें तर्कज्ञान से भी निर्णीत करना उचित है। और यह सब होकर यदि स्वानुभव नहीं हुआ तब भी कल्याणपथ की प्राप्ति दुर्लभ है। इसीलिये कुन्दकुन्द महाराज का कहना है कि मैं अपने विभव से आत्मा के एकत्व को दिखाता हूँ। यदि कहीं स्खलित हो जाऊँ तो आप लोगों को उचित है कि स्वीय अनुभव से वस्तु स्वरूप को अवगत कर प्रमाण करें, छल ग्रहण करना सर्वथा हेय है। आजकल मनुष्य अपना समय प्राय: कुकथा आदि में लगाकर अनुपम तत्त्व के खोजने में नहीं लगाते, इसीसे प्राय: दु:ख के ही पात्र रहते हैं।।५।। ___अब यहाँ शुद्ध आत्मा को विषय करने वाली द्रव्यदृष्टि से प्रश्न होता है कि आत्मद्रव्य क्या वस्तु है? इसका श्रीस्वामी उत्तर देते हैं तथा दूसरी गाथा के अवतरण में यह प्रश्न था कि समय क्या पदार्थ है? वहाँ पर स्वामी ने यह उत्तर दिया था कि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित है वही स्वसमय है और जो पुद्गलकर्मप्रदेश में स्थित है वह परसमय है, इन दोनों पर्यायों का जो आधार है वही तो समय हैयह बात इस गाथा से स्पष्ट हो जाती है ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो । एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव ।।६।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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