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________________ जीवाजीवाधिकार अर्थ- वह जो पूर्वोक्त अभेदरत्नत्रयात्मक, मिथ्यात्व-रागादिरहित, परमात्म स्वरूप आत्मा का एकत्व है उसे मैं स्वकीय आगम, तर्क, परापरगुरूपदेश तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा दिखाऊँगा; यदि दिखाने में चूक जाऊँ, तो स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा उसे जानने का प्रयत्न करना, छल ग्रहण नहीं करना। विशेषार्थ- आचार्य महाराज का कहना है कि मेरे पास जो कुछ विभव है उस सम्पूर्ण विभव के द्वारा मैं उस आत्मा के एकत्व को दिखाने का प्रयत्न करता हूँ। वह विभव कैसा है, इसी को दिखाते हैं—'अनेकान्तात् सिद्धिः' अर्थात् ‘स्यात्' शब्द के प्रयोग बिना किसी भी अर्थ की सिद्धि नहीं होती। अर्थ अनेकान्तात्मक है अत: उसके वाचक शब्द के साथ जब तक ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग नहीं किया जावे तबतक उसकी प्रतीति नहीं होती। जैसे 'घटोऽस्ति' इसका अर्थ यह है कि ‘घट है।' वास्तव में विचार किया जावे तो घटशब्द का अर्थ ‘कम्बुग्रीवादिमान् पदार्थ' है वह अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से है और घटान्यपदार्थ के द्रव्यादिचतुष्टय से नहीं है। अत: जबतक ‘स्यात्' पद का प्रयोग नहीं किया जावे तबतक इस अर्थ का भान नहीं होता। अत: आगममात्र में 'स्यात्' पद की आवश्यकता है। इस तरह सकल-पदार्थों का प्रकाश करने वाले ‘स्यात्' पद से मुद्रित शब्द-ब्रह्म की पूर्ण उपासना स्वामी के थी और एकान्त वादियों के द्वारा निर्णीत जो पदार्थ थे उनका अत्यन्त सारभूत युक्तियों के द्वारा निराकरण कर यथार्थ पदार्थ की व्यवस्था उन्होंने की थी, ऐसा उनका विभव था। तथा जिस पदार्थ का स्वरूप स्वामी ने लिखा है वह केवल आगम और युक्ति के बल से ही नहीं लिखा है किन्तु निर्मल विज्ञान के धारी जो परापर गुरु थे उनके उपदेश से उसे सुना था। इतना ही नहीं कि आगम, युक्ति और परापरगुरुपरिपाटी से तो सुना हो परन्तु स्वानुभव न हो तब भी वह पदार्थ यथार्थ कहने में नहीं आता, उसी का निवारण करने के लिए श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने उस विभव का यह विशेष किया कि स्वामी ने आगम, तर्क और गुरुपरम्परा से जैसा श्रवण किया था वैसा ही उनके उस पदार्थ के जानने का अन्तरंग स्वसंवेदन भी था। इस प्रकार श्रीकुन्दकुन्द स्वामी ने आत्मा के एकत्व का प्रदर्शन कराने की प्रतिज्ञा की। फिर भी स्वामी के ज्ञान और वीतरागभाव की महिमा देखिये, जो लिख रहे हैं कि यदि मैं इतना प्रयास करने पर भी एकत्व दिखाने में स्खलित हो जाऊँ तो छल ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं, अपने अनुभव से स्वसंवेदन करने की चेष्टा करना। परमार्थ से देखा जावे तो जो पदार्थ है वह दुरधिगम्य है। यथार्थ पदार्थ की प्रतिपत्ति बिना सम्यग्ज्ञान के होना कठिन है परन्तु सम्यग्ज्ञान का होना ही कठिन हो रहा है, क्यो अनादिकाल से यह प्राणी मोहकर्म के वशीभूत होकर परपदार्थों में ही अपना अस्तित्व मान रहा है। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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