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समयसार
अर्थ- सम्पूर्ण जीवों को कामभोगविसर्पिणी बन्ध की कथा अतिसुलभ है, क्योंकि निरन्तर सुनने में आती है, परिचित है तथा अनुभूत है। देखा जाता है कि बच्चा पैदा होते ही स्तन्यपान में प्रवृत्ति करने लग जाता है। इसी प्रकार मैथुनादि कार्यों में बिना ही शिक्षा के जीवों की प्रवृत्ति स्वयमेव हो रही है। किन्तु परपदार्थ तथा परपदार्थों के निमित्त से जायमान रागादि विभावों से भिन्न सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रात्मक अभेदरत्नत्रयरूप आत्मा के एकत्व की प्राप्ति अतिदुर्लभ है।
विशेषार्थ- इस संसार में कुम्भकार के चक्रपर जो मिट्टी का घड़ा बनाया जाता है वह जिस तरह दंड के द्वारा जब भ्रमण करता है तब उस पर रखी हुई मिट्टी भी सब ओर भ्रमण करती है, इसी तरह इस संसार-चक्र के मध्य में जो जीवलोक है वह भी निरन्तर पञ्च परावर्तनों के रूप में मोहपिशाच के द्वारा निरन्तर भ्रमण कर रहा है। जिस तरह कोल्हू का बैल घूमता है, उसी तरह यह भ्रमण कर रहा है। भ्रमण करने से लोक भ्रान्त हो रहा है तथा नाना प्रकार के तृष्णरूप रोगों के द्वारा नाना प्रकार की चिन्ताओं से आतुर रहता है। उनके शमन करने के लिये पञ्चेन्द्रियविषयों का सेवन करता है परन्तु उससे शान्तभाव को नहीं पाता है। जैसे मृगादि मरुमरीचिका में जलबुद्धि कर तृषा की शान्ति के अर्थ दौड़ कर जाते हैं परन्तु वहाँ जल न पाकर फिर आगे दौड़ते हैं। वहाँ भी जल न पाकर परिश्रम करते-करते थक कर अन्त में प्राण गवा देते हैं। इसी तरह यह प्राणी भी अन्तरङ्ग कषायों के शमन करने के अर्थ पञ्चेन्द्रिय विषयों की निरन्तर सेवा करते हैं तथा दूसरों को भी यही उपदेश करते हैं। पाप में कौन पण्डित नहीं? ऐसा करने से शान्ति तो मिलती नहीं, निरन्तर आकुलित हुए काल पूर्ण करते हैं। इस प्रकार यह कामभोगबन्ध की कथा अनादि काल से सुनने में आई, निरन्तर विषयों के सेवन करने से वह परिचित भी है और अनुभूत भी है, अत: निमित्त मिलने पर एकदम स्मरण में आ जाती है। और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रैक्यरूप आत्मा का जो एकत्व है वह यद्यपि अन्तरंग में प्रकाशमान है तथापि अनादिकालीन कषायचक्र ने इसे संसार अवस्था में तिरोहित कर रखा है। जीव, स्वयं तो अज्ञानी हैं सो कुछ जानते नहीं और जो आत्मज्ञानी हैं उनकी उपासना करते नहीं, अत: न तो वह सुनने में आया, न परिचय में आया और न अनुभव में आया।।४।।
आगे आत्मा का जो एकत्व अतिदुर्लभ है उसी को श्रीकुन्दकुन्द महाराज दिखाने की प्रतिज्ञा कहते हैं
तं एयत्त-विहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण। यदि दाएज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलं ण घेतव्वं ।।५।।
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