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जीवाजीवाधिकार
कर प्रकारान्तर से व्यवस्था की जावे तो सर्वसंकरादि दोषों की आपत्ति आ जावेगी। इस प्रकार यह व्यवस्था चली आ रही है। उसमें जीव नामक जो पदार्थ है उसमें बन्ध की कथा विसंवादिनी है क्योंकि बन्ध दो पदार्थों के सम्बन्ध से होता है। बन्ध का यह अर्थ नहीं कि उन दोनों की सत्ता का अभाव हो जाता है कि वे दोनों अपने-अपने स्वरूप को छोड़कर एक भिन्न ही अवस्था (विकारी दशा) को प्राप्त हो जाते हैं। पुद्गलों में तो यह ठीक है क्योंकि जैसे चूना और हल्दी मिलाने से एक लाल रंग वाली भिन्न ही वस्तु हो जाती है। कारण कि पुद्गलों में वर्णगुण सभी में रहता है, अत: वर्ण का अवान्तर पर्याय लाल रंग दोनों का होने में कोई बाधा नहीं। परन्तु जीव और पुद्गलों के बन्ध में कुछ विलक्षणता है। जीव के रागादि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलों में ज्ञानावरणादिरूप पर्याय हो जाती है और ज्ञानावरणादिरूप पुद्गल का निमित्त पाकर जीव में रागादिरूप परिणति होती है अर्थात् जीव अपने स्वरूप से च्यूत होकर रागादिरूप परिणमता और कार्मण वर्गणाएँ ज्ञानावरणादिरूप परिणमन को प्राप्त हो जाती हैं। जीव और पुद्गलों की एक पर्याय नहीं होती। यहाँ यद्यपि ज्ञानावरणादि कर्मों का विपाक पुद्गलों में होता है और जीव का रागादिक जीव में होता है तथापि दोनों ही अपने-अपने स्वरूप से च्युत होकर एकक्षेत्रावगाह से रहते हैं। यही सिद्धान्त श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने स्वयं लिखा है
जीवपरिणामहेतुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ।। ण वि कुव्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोण्णणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोहूं पि ।। एएण कारणेण दु कत्ता आदा सएण भावेण ।
पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।। इन गाथाओं का विशेषार्थ यथास्थान करेंगे ।
इस परिपाटी से जीव के साथ पुद्गल द्रव्यों के सम्बन्ध से यह बन्ध हो रहा है सो विसंवाद का जनक है। अतएव परद्रव्यों से भिन्न और स्वकीय गुण-पर्यायों से अभिन्न आत्मा का जो एकत्वपन है वही सुन्दर है।।३।।
_आगे आत्मा का जो एकत्वपन है उसकी प्राप्ति अति कठिन है, यह कहते हैं -
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।४।।
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