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समयसार
अब यहाँ पर कुन्दकुन्द महाराज का कहना है कि आत्मा में जो द्विविधपना है वह सुन्दर नहीं। यहाँ पर द्विविधपन से तात्पर्य स्वसमय और परसमय से है अर्थात् आत्मा में जो परप्रत्यय से उत्पन्न रागादि हैं उनके साथ एकत्वबुद्धिकर आत्मा पुद्गलकर्मप्रदेशों में स्थित रहता है— आत्मा से भिन्न जो शरीरादि हैं उन्हें अपने मानकर उनके अनुकूल जो बाह्य पदार्थ हैं उनमें राग और जो उनके प्रतिकूल हैं उनमें द्वेष कल्पना कर अनन्तसंसार का पात्र बनता है - यह संकरता सुन्दर नहीं है
एयत्त- णिच्छय-गओ समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए ।
बंध- कहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होई || ३ ||
अर्थ- जो समय-पदार्थ एकत्व में निश्चित हो रहा है वही सर्वलोक में सुन्दर है। इसी हेतु से एकपन में जो बन्ध की कथा है वह विसंवादरूपिणी है अर्थात् निन्द्य है ।
विशेषार्थ - प्रायः लोक में भी देखा जाता है कि जबतक यह मनुष्य छात्र-जीवन में रह कर गुरुकुल में विद्याध्ययन करता है तबतक सब आपत्तियों से विनिर्मुक्त होकर ब्रह्मचारी हो सानन्द जीवन से अपने समय को निर्द्वद्व बिताता है और जब घर में प्रवेश करता है तथा माता - पिता के आग्रह से विवाह बन्धन को स्वीकृत करता है तब द्विपद् से चतुष्पद होता है । दैवयोग से बालक हो गया तो षट्पद (भौंरा) हो जाता है । और अपने बालक का जब विवाह-संस्कार हो गया तब अष्टापद (मकड़ी) हो जाता है और अपने ही जाल में आप ही मरण को प्राप्त हो जाता है। इससे यह तत्त्व निकला कि पर का सम्बन्ध ही इस संसार में आपत्तियों की खान है।
इस गाथा में जो समयशब्द आया है उसका अर्थ यहाँ पर आत्मा नहीं है किन्तु सामान्य पदार्थ है। अतएव उसकी व्युत्पत्ति श्री अमृतचन्द्र महाराज ने इस रूप से की है— 'समयते एकत्वेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति समय:' अर्थात् जो एकपन कर स्वकीय गुण-पर्यायों को प्राप्त होता है उसे समय कहते हैं । अतः समयशब्द से धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव- ये छह लिये जाते हैं। इन्हीं षड्द्रव्यों का समुदाय ही लोक है। इस लोक में जो भी द्रव्य है वह अपने अनन्त धर्मों का चुम्बन करता है अर्थात् अपने अनन्त धर्मों से तन्मय है, एक द्रव्य कदापि परद्रव्य के धर्मों का चुम्बन नहीं करता। ये षड्द्रव्य अत्यन्त प्रत्यासत्ति (एकक्षेत्रावगाह) के होने पर भी स्वरूप से पतित नहीं होते - कभी भी पररूप से परिणमन नहीं करते, इसी से उनके अनन्त व्यक्तित्व का भी अभाव नहीं होता । समस्त विरुद्ध और अविरुद्ध कार्यों में कारण होकर विश्व का उपकार कर रहे हैं। किन्तु निश्चय से एकत्वरूप कर ही सुन्दरता को पाते हैं। यदि इस प्रक्रिया का त्याग
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