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________________ जीवाजीवाधिकार का कहना है कि उत्पादादित्रय न मानने से हानि है अर्थात् न मानने से वस्तु का ही अपलाप हो जावेगा, अत: इन तीनों के मानने में ही वस्तु का अस्तित्व बन सकता है। इसके सिवाय इसके मानने में गुण ही है, वही दिखाते हैं—वस्तु परिणाम और परिणामी स्वरूप ही है। अब इन दोनों में किसे न माना जावे? यदि परिणाम को नहीं मानोगे, तो परिणाम के अभाव में वस्तु कूटस्थरूप रहेगी, तब न तो यह ही लोक बनेगा और न परलोक बनेगा। जैसे जीवद्रव्य को लीजिये-यदि उसमें पुण्य और पापरूप परिणाम न मानोगे, तो इस लोक का अभाव होगा और कारण के न होने से परलोक भी नहीं बनेगा तथा मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शनादिरूप आत्मा का परिणमन न होने से मोक्ष की व्यवस्था नहीं बनेगी, इस तरह बन्ध और बन्धाभाव के बिना न तो संसार ही बनेगा और न मोक्ष तत्त्व का ही अस्तित्व रहेगा, अत: वस्तु को परिणमनशील मानना ही सुन्दर है। अब दूसरा पक्ष रहा अर्थात् परिणामी को नहीं मानोगे, तो परिणमन किसमें होगा? परिणामी के न मानने से वस्तु क्षणिक परिणाममात्र ठहरेगी और ऐसा होने से जो प्रत्यभिज्ञान होता है उसका अपलाप हो जावेगा। अतएव श्रीसमन्तभद्र स्वामी ने देवागम में लिखा है नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा। क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्ध्यसंचरदोषतः।। वस्तु कथंचित् नित्य है क्योंकि “यह वही है'' ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है और यह जो प्रत्यभिज्ञान होता है वह अकस्मात् (बिना कारण) नहीं होता है, क्योंकि अन्वयीरूप का वस्तु में निरन्तर सद्भाव रहता है और वही वस्तु काल के भेद से क्षणिक भी है, अन्यथा वस्तु में जो बुद्धिसंचार होता है वह नहीं होगा अर्थात् जैसे आत्मा में संसारी और मुक्त का जो भेद होता है वह नहीं होगा, अत: यह मानना अत्यावश्यक है कि जो आत्मा प्रागवस्था में कर्मों के सम्बन्ध से संसारी था वही आत्मा कर्मों के अभाव से मुक्त हो जाता है। द्रव्यदृष्टि से आत्मा वही है परन्तु पर्याय की अपेक्षा आत्मा संसारी भी है और मुक्त भी है। इसी से श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि जो दर्शन-ज्ञान-चरित्र में स्थित है वही आत्मा स्वसमयशब्द से कहा जाता है और जो राग-द्वेष-मोह के साथ एकपन का निश्चयकर पुद्गलकर्मप्रदेशों में सिथत है वही परसमय है। सामान्यरूप से आत्मा निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प है, न संसारी है और न मुक्त है। इसका यह तात्पर्य है कि द्रव्यदृष्टि वस्तु का अभेदरूप वर्णन करती है और पर्यायदृष्टि भेदरूप। अत: दोनों का विषय सत्य है, यदि पर्यायदृष्टि का विषयभेद सर्वथा ही मिथ्या होता तो 'अनयो: मैत्री प्रमाणम्' यह लिखना मिथ्या हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि सामान्यविशेषात्मक जो वस्तु है वही प्रमाण का विषय है।।२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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