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________________ समयसार जिस तरह संसार में वस्तु स्वत: सिद्ध है उसी तरह वह स्वभाव से परिणमनशील भी है इसलिए जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है वही सत् है, और जो सत् है वही नियम से द्रव्य है। ___ यदि वस्तु परिणमनशील न मानी जावे तो उसमें उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य की स्थिति नहीं बन सकती। इसके सिवाय असत् का उत्पाद और सत् का विनाश होने लगेगा। इससे मानना चाहिए कि वस्तु परिणमनशील है तब ही वस्तु में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप परिणामों का सद्भाव बन सकता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि किसी परिणाम से वस्तु उत्पन्न होती है और किसी परिणाम से नष्ट होती है तथा किसी परिणाम से ध्रौव्यरूप रहती है। इसीलिए पञ्चाध्यायीकार ने लिखा है द्रव्यं ततः कथञ्चित्केनचिदुत्पद्यते हि भावेन । व्येति तदन्येन पुनमैंतदद्वयं हि वस्तुतया ।। (इसका अर्थ ऊपर आ चुका है) यही श्रीसमन्तभद्र स्वामी ने देवागम में लिखा है न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ।। अर्थात् सामान्यरूप से न तो कोई द्रव्य उत्पन्न होता है और न कोई द्रव्य नष्ट होता है क्योंकि व्यक्तरूप से अन्वय की प्रतीति होती है। जैसे एक बालक अपनी बालक अवस्था से युवावस्था को प्राप्त हो गया और युवावस्था से वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया। एतावता मनुष्य सामान्य में कौन सा विकार हुआ? मनुष्य तो वह हर दशा में बना रहा। इसी प्रकार द्रव्य में सामान्यरूप का अन्वय रहते हुए अवस्थाओं का उत्पाद और व्यय होता रहता है। ऐसी सम्पूर्ण पदार्थों की व्यवस्था है। यही दृष्टान्त द्वारा पञ्चध्यायीकार दिखाते हैं इह घटरूपेण तथा प्रादुर्भवतीति पिण्डरूपेण। व्येति तथा युगपत्स्यादेतद्वितयं न मृत्तिकात्वेन।। अर्थात् इस लोक में यह प्रत्येक का अनुभव है कि घटरूप के द्वारा वस्तु का उत्पाद होता है और पिण्डरूप के द्वारा व्यय होता है। यह दोनों युगपत् ही होते हैं, मृत्तिकापने से न तो उत्पादन होता है और न व्यय होता है किन्तु सर्वथा स्थिरता रहती है। इस तरह वस्तुमात्र एक ही काल में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। यहाँ पर किसी वादी का कहना है कि यह सब तम्हारा बुद्धि का अजीर्ण है, उत्पादादित्रय के मानने में न तो कोई गुण है और न कोई हानि है? इसपर आचार्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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