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जीवाजीवाधिकार
में परको निज मानता है और इसी मानने के कारण ज्ञानदर्शनस्वरूप, सर्वपदार्थ प्रकाशक स्वकीयात्मद्रव्य से च्युत हो परद्रव्य के निमित्त से जायमान राग-द्वेषमोह के साथ अभेद मानकर पुद्गलादि परद्रव्यों में आपा मान अनन्त संसार का भाजन बनता है, यही परसमय है और जब इस जीव का संसारतट समीप आने का अवसर आता है तब आप ही आप सकल पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले ज्ञान के उत्पादक भेदज्ञान का उदय होने से ज्ञानदर्शनात्मक आत्मतत्त्व के साथ एकपने की बुद्धि कर जो अपने ज्ञानदर्शन स्वरूप आत्मा में स्थिति करता है तथा उसके होते ही अनन्त सुख का पात्र होता है, इसी का नाम स्वसमय है।
यह परसमय और स्वसमय अवस्था आत्मा की दो पर्याय हैं। एक पर्याय पुद्गलों के सम्बन्ध से है और दूसरी पुगलों के अभाव से । जबतक शरीरसम्बन्ध है तबतक इसे संसारी कहते हैं और शरीरसम्बन्ध का अभाव होने पर सिद्ध कहते हैं। सामान्यरूप से न सिद्ध है और न संसारी है। आत्मा की जो दो अवस्थाएँ स्वामी ने कहीं हैं वे पर्यायदृष्टि से हैं। तब फिर द्रव्य दृष्टि से आत्मा कैसा है, यह प्रश्न उठता है? उसका उत्तर है कि नित्य है । यहाँ नित्य का अर्थ कूटस्थरूप नहीं है किन्तु परिणमनशील है। अतएव परिणामात्मक होने से ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इस त्रिविधरूप सत्ता से अनुस्यूत है । यह सत्ता यद्यपि जीव और अजीव दोनों में साधारणरूप से अनुस्यूत है, तथापि विशिष्टरूप से जीव की सत्ता चैतन्यस्वरूप है । इस सत्ता से ही जीव में ज्ञान और दर्शन का उद्योत होता है । यही एक ऐसी सत्ता या शक्ति है जो आत्मा को इतरपदार्थों से भिन्न सिद्ध करती है। आत्मा में अनन्तगुण हैं, उन गुणों का पिण्ड होने के कारण आत्मा एकद्रव्यरूप है। आत्मा में जो गुण है वे युगपत् अक्रम से रहते हैं और सदैव परिणमनशील हैं। इसीलिये क्रम से रहनेवाली पर्याय और अक्रम से रहनेवाले गुण इन दोनों से द्रव्य तन्मय हो रहा है। आत्मा दर्पणवत् है, उसकी स्वच्छता में सर्व पदार्थ प्रतिभासित होते हैं अतएव वैश्वरूप्य होने पर भी अपने एकत्व को नहीं त्यागता । अर्थात् नानात्मक होने पर भी एकात्मक है। आत्मा, आकाशादिक जो द्रव्य हैं उनसे भिन्न है क्योंकि चेतना गुणवाला है। आकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल में क्रमशः अवगाहन, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तना तथा रूपादि गुण हैं। ये ही गुण इन पदार्थों को परस्पर में भिन्न कराने में कारण रूप हैं।
संसार में यावत् पदार्थ हैं वे परिणमनशील हैं। पञ्चाध्यायी में कहा है
वस्त्वस्ति स्वतः सिद्धं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामि ।
तस्मादुत्पादस्थितिभङ्गमयं
तत्सदेतदिह नियमात् ।।
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