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समयसार
मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते
र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः।। ३ ।।
अर्थ - इस समयसार की व्याख्या से मेरी अनुभूति की परम विशुद्धता प्रकट हो। यद्यपि मेरी वह अनुभूति शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति से युक्त है अर्थात् परम ज्ञायकभाव से सहित है तथापि वर्तमान में परपरिणति का कारण जो मोहनाम का कर्म है उसके उदयरूप विपाक से निरन्तर रागादिक की व्याप्ति से कल्माषित - मलिन हो रही है।
भावार्थ- आत्मा का स्वभाव तो पदार्थ को जानना मात्र है। परन्तु अनादिकाल एक मोहकर्म इसके साथ लगा हुआ है जो इसकी परपदार्थों में रागद्वेषादिरूप परिणति के कराने में निमित्त कारण है उसी मोहकर्म के उदय से मेरी वह अनुभूति-ज्ञातृत्वशक्ति, अनुभाव्य - रागादिक परिणामों की व्याप्ति से मलिन हो रही है अर्थात् पदार्थों को जानकर उनमें इष्ट अनिष्ट कल्पना करके अशुद्ध हो रही है सो समयसार की व्याख्या से मेरी अनुभूति में परम विशुद्धता आ जावे - उसमें से इष्ट-अनिष्ट का भाव निकल जावे, यही मैं चाहता हूँ । समयसार की व्याख्या करने का मेरा यह प्रयोजन है ।
आगे वह समय क्या है? यह कहते हैं
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जीवो चरित्त - दंसण - णाण-ट्ठिउ तं हि ससमयं जाण । पुग्गल - कम्मपदेश-ट्ठियं च तं जाण परसमयं ।।२।। अर्थ- जो जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित है उसे स्वसमय जानो और जो पुद्गलकर्म प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय जानो ।
विशेषार्थ - जीव का स्वभाव देखने-जानने का है, क्योंकि पदार्थ सामान्यविशेषात्मक हैं, वे ही पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासमान होते हैं अतः आत्मा का ज्ञान भी सामान्यविशेषात्मक है। ज्ञान एक ऐसा गुण है जो प्रदीप की तरह स्वपरप्रकाशक है अर्थात् परको जानता है और अपने को जानता है । सर्वज्ञ का ज्ञान अक्रमवर्ती है अर्थात् स्व-परपदार्थों में युगपद् प्रवर्तमान होता है परन्तु छद्मस्थों का ज्ञान क्रमवर्ती है अर्थात् स्व-परपदार्थों को क्रम से जानता है । जिस सम परको जानता है उस समय उपयोग परकी ओर रहता है। ऐसा व्यवहार भी होता है कि मैं घटको जानता हूँ और जब स्वोन्मुख होता है तब स्वको जानता है अर्थात् ऐसी प्रतीति होती है कि ‘घटमहमनुजानामि’ अर्थात् घटविषयक जो ज्ञान उसका मैं ज्ञाता हूँ। वस्तुतः ज्ञान में न तो घट आता है और न घट में ज्ञान जाता है । किन्तु अनादिकाल से आत्मा के साथ पुद्गल कर्मों का एक ऐसा विलक्षण सम्बन्ध हो रहा है कि उनके उदयकाल
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