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जीवाजीवाधिकार
इस विवरण में उसी आत्मख्याति का अधिकांश आश्रय लिया है। आत्मख्यातिटीका में अमृतचन्द्रस्वामी ने अनेक श्लोक लिखे हैं, जो कलश के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा तत्त्व के निरूपण करने और अभिप्राय के निर्मल बनाने में परम सहायक हैं। इस विवरण में उन कलशों का भी विवरण है । ग्रन्थ की टीका के प्रारम्भ में वे लिखते हैंनमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।। १॥
अर्थ- मैं समयसार अर्थात् समस्त पदार्थों में श्रेष्ठ उस आत्मतत्त्व को नमस्कार करता हूँ जो स्वानुभूति से स्वयं प्रकाशमान है, चैतन्यस्वभाववाला है, शुद्ध सत्तारूप है और समस्त पदार्थों को जाननेवाला है अथवा चैतन्य स्वभाव से भिन्न समस्त रागादिक विकारीभावों को नष्ट करनेवाला है ।
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भावार्थ- षड्द्रव्यात्मक संसार में स्वपरावभासक होने से आत्मद्रव्य ही सारभूत है, वह आत्मद्रव्य स्वानुभूति से प्रकाशमान है, चैतन्य स्वभाव को लिये हुए है, अनाद्यनन्त काल तक स्थित रहने से सद्भावरूप है, तथा अपनी ज्ञायकशक्ति से लोकालोक के समस्त पदार्थों को जाननेवाला है अथवा चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त आत्मा के जितने अन्य विकारीभाव हैं उन्हें पृथक करनेवाला है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में उसी शुद्ध आत्मतत्त्व को नमस्कार किया गया है।
अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः ।
अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्यमेव प्रकाशताम्।।२।।
अर्थ- जो अनन्त धर्मों से युक्त शुद्ध आत्मा के स्वरूप का अवलोकन करती है ऐसी अनेकान्तरूप मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान हो ।
भावार्थ- आत्मा अस्तित्व, नास्तित्व आदि परस्परविरोधी अनन्त धर्मों से तन्मय है, अतः उसके यथार्थ स्वरूप का अवलोकन करनेवाली अनेकान्तदृष्टि ही है। परस्परविरोधी अनेक अन्त - अनेक धर्मों का समन्वय करनेवाली दृष्टि अनेकान्तदृष्टि कहलाती है । इसी अनेकान्तदृष्टि में रूपकालंकार से मूर्तिका आरोप करते हुए आचार्य ने कहा है कि वह अनेकान्तदृष्टिरूपी मूर्ति निरन्तर प्रकाशमान रहे, क्योंकि उसके प्रकाश में ही आत्मतत्त्व का निर्दोष वर्णन हो सकता है।
आगे समयसार की व्याख्या का प्रयोजन बताते हुए कहते हैं
मालिनी छन्द
परपरिणतिहेतोमोहनाम्नोऽनुभावा
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दविरतमनुभाव्यव्याप्तिकल्माषितायाः ।
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