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समयसार
में निजत्व का अभाव है उसमें निजत्वरूप से स्वकीय बोध होना, इसी का नाम मिथ्याज्ञान है। जैसे सीप में चाँदी का ज्ञान मिथ्याज्ञान है। इसी मिथ्यादर्शन के सहवास से आत्मा की परपदार्थों में निजपने की परिणति होती है, और इसी के सहवास से आत्मा का जो चरित्र है वह मिथ्याचारित्र हो जाता है। अत: श्री स्वामी समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में यह लिखा है
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। अर्थात् धर्म के ईश्वर गणधरादिक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहते हैं। यह रत्नत्रयरूप धर्म मोक्ष का मार्ग है और इससे विपरीत मिथ्यादर्शनादित्रय संसार का मार्ग है। इसी प्रकार कुन्दकुन्द महाराज ने प्रवचनसार में स्वयं कहा है
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो।
मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हि समो।। स्वरूप में जो आचरण है उसी का नाम चारित्र है, उसी का अर्थ स्वसमय प्रवृत्ति है, उसी को वस्तुस्वभावपने से धर्म कहते हैं, उसी का शुद्ध चैतन्यप्रकाश से व्यवहार होता है और वही यथावस्थित आत्मगुणात्मक होने से साम्य शब्द से कहा जाता है और दर्शनमोह तथा चारित्रमोह के उदय के निमित्त से जो आत्मा में मोह और क्षोभ होता है उसी मोह-क्षोभ के अभाव को सम या साम्य शब्द से कहते हैं। यह गण सिद्धगति में पूर्णरूप से सदा के लिए विद्यमान रहता है, इसीसे सिद्धगति को ध्रुव कहते हैं और योगों के द्वारा जो आत्म प्रदेशों की चञ्चलता होती है उसका अभाव होने से वह अचल गति है। संसार में चार गतियाँ कर्म के सम्बन्ध से होती हैं और सिद्धगति कर्मों के अभाव से होती है, अतएव निरुपम है। ऐसी सिद्धगति को प्राप्त सिद्धभगवान् का भाववचनों के द्वारा अपने आत्मा में ध्यान कर
और द्रव्यवचनों द्वारा परात्मा में ध्यान कराके श्रीकुन्दकुन्द स्वामी अपने और पराये मोह के नाश के अर्थ द्वादशाङ्ग का अवयवभूत जो समयसारप्राभृत है उसका परिभाषण करते हैं। यह समयप्राभृत प्रमाणभूत है क्योंकि यह अनादि निधन श्रुत के द्वारा कहा गया है। इसके मूलकर्ता सर्वज्ञ हैं तथा उनकी दिव्यध्वनि का निमित्त पाकर श्रीगणधरदेव भी इसके प्रकट कर्ता हैं। वास्तव में समय नामक पदार्थ अनादिनिधन है, ये तो सूर्य की तरह उसके प्रकाशक हैं, परमत-कल्पित ईश्वर की तरह कर्ता नहीं हैं।।१।।
श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने समयसार के ऊपर आत्मख्याति नामक टीका लिखी है, जो श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के भाव को हृदयङ्गम कराने में अत्यन्त सहायक है। मैंने
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