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________________ जीवाजीवाधिकार उसका आलम्बन होते ही जीव बन्धन से छूट जाता है। अत: जिन जीवों को आत्म-कल्याण की अभिलाषा है वे उन जीवों की, जो कर्मबन्ध से छूट गये हैं, उपासना कर स्व-स्वरूप की प्राप्ति की दिशा में बढ़ें। इसी अभिप्राय को लेकर श्रीकुन्दकुन्द महाराज ने प्रथम ही इस समयप्राभृत में सिद्धभगवान् को नमस्कार किया है। 'ध्रुव, अचल और अनुपम गति को जिन्होंने प्राप्त किया है ऐसे सिद्ध परमात्मा को नमस्कार कर मैं श्रुतकेवली के द्वारा प्रतिपादित समयप्राभृत कहूँगा' ऐसा कहने से आचार्य महाराज का यह आशय विदित होता है कि इसके द्वारा हमारा और पर का दोनों का कल्याण होगा। समयप्राभृत के निरूपण करने से उपयोग निरन्तर आत्मस्वरूप के परामर्श में तल्लीन रहेगा, इससे निरन्तर मन्दकषाय रहेगी तथा वस्तु स्वरूप के विचार से जो स्वरूप में स्थिरता होगी वह ध्यान की साधक होगी, अत: कर्मों की निर्जरा भी अवश्यंभाविनी है जो सिद्धपद की प्राप्ति में परम्पराकारण होगी, यह तो स्वयं को लाभ है ही, किन्तु जो भव्यजीव इसका पठन-पाठ करने में समय लगावेंगे उनके सर्वप्रथम तो समय के सदुपयोग का अवसर आवेगा, द्वितीय, संसारिक पदार्थों के सहवास से जो निरन्तर कलुषित परिणाम रहते हैं उनसे रक्षा होगी और तृतीय, अनन्तकाल से अप्राप्त जो आत्मा ज्ञान उसके पात्र होंगे। उसके पात्र होते ही निरन्तर परिणामों की निर्मलता से उस तत्त्व का विकास वृद्धिरूप हो जावेगा, जो परम्परा से परमात्मा के समकक्ष पहुँचा देगा। ऐसा इस समयप्राभृत के कहने का उद्देश्य श्रीकुन्दकुन्द महाराज का है। मल गाथा में स्वामी ने सिद्धगति को तीन विशेषणों से विशेषित किया है अर्थात् सिद्धगति ध्रुव, अचल और अनुपम है, यह प्रतिपादित किया है। संसारी आत्माएँ निरन्तर कलुषित और चञ्चल रहती हैं, क्योंकि उनके मोह और योग का सद्भाव है। गुणस्थानों के होने में मोह और योग ही कारण हैं। मोह की मुख्यता से बारह गुणस्थान हैं और योग की मुख्यता से त्रयोदशवाँ तथा चतुर्दशवाँ गुणस्थान हैं। मोह से आत्मा में मिथ्यात्व एवं राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है जिससे आत्मा निरन्तर कलुषित रहता है और उसी कलुषता से नाना प्रकार के विभावों का पात्र होता है। इन तीनों में मोह आत्मा को अनन्त संसार का पात्र बनाता है, अत: मोह का नाम मिथ्यात्व है। इसी के प्रताप से आत्मा परपदार्थों के निमित्त से जायमान रागादिकों में निजत्व का संकल्प करता है। वास्तव में मिथ्यादर्शन अनिर्वचनीय है, क्योंकि ज्ञानगुण को छोड़कर जितने भी आत्मा के गुण हैं सर्व ही निर्विकल्प हैं, मात्र ज्ञानगुण ही एक ऐसा गुण है जो सबकी व्यवस्था बनाये हुए हैं। अत: मिथ्यादर्शन के होने पर आत्मा में परपदार्थों के प्रति जो निजत्व की बुद्धि होती है उसी का नाम मिथ्याज्ञान है। 'तदभाववति तज्ज्ञानं मिथ्याज्ञानम्' अर्थात् परपदार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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