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________________ समयसार विशेषार्थ- संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं-एक चेतन और दूसरा अचेतन। उनमें चेतन पदार्थ को जीव कहते हैं और जो अचेतन है उसे अजीव कहते हैं। अजीव के ५ भेद आगम में कहे हैं धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल। जीवसहित इन्हीं पाँच को षद्रव्य कहते हैं। इन छह द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश और काल- ये चार द्रव्य सर्वथा शुद्ध हैं- इनमें कोई प्रकार का विभाव परिणमन नहीं होता, सर्वदा इन द्रव्यों का एक सदृश परिणमन रहता है। शेष जो जीव और पुद्गल द्रव्य हैं वे स्वभावरूप भी परिणमते हैं और विभावरूप भी। जब वे जीव और पद्गल केवल अपनी अवस्था में (अलग-अलग) रहते हैं तब उनका परिणमन शुद्ध ही रहता है और जबतक जीव तथा पुद्गल की परस्पर अनादिकाल से आगत बन्धावस्था रहती है तबतक अशुद्ध परिणमन रहता है। हाँ, इतनी विलक्षणता है कि पुद्गल द्रव्य की अशुद्धावस्था जीव के साथ से भी होती है और पुद्गल के सम्बन्ध से भी। किन्तु जीव की अशुद्धावस्था केवल पुद्गल के सम्बन्ध से ही होती है। अत: इस संसार में अनादि काल से यह जीव कर्मरूप पद्गल के सम्बन्ध से निरन्तर अशुद्धावस्था का पात्र हो रहा है और जबतक अशुद्धावस्था रहेगी तबतक संसार का पात्र रहेगा। संसारी होने से संसार में जो सुख-दुःख होता है उसका वह भोक्ता भी होता है। जब इस जीव का संसार अल्प रहता है तब इस जीव को यह विचार होता है कि मेरा निज शुद्ध स्वभाव तो परको केवल देखना और जानना है, मैं जो उनको अपना इष्ट-अनिष्ट मानता हूँ यह मेरी अज्ञानता है। जैसे दर्पण में पदार्थ के प्रतिबिम्बित होने से दर्पण कुछ पदार्थ नहीं हो जाता, केवल घटपटादि पदार्थों के सम्बन्ध से दर्पण का घटपटादि प्रतिबिम्बरूप परिणमन हो जाता है। यह परिणमन दर्पण की ही स्वच्छता का विकार है। विकार का अर्थ परिणमन ही है। इसी तरह आत्मद्रव्य ज्ञानादिगुणों का पिण्ड है। उसके ज्ञानगुण में यह विशेषता है कि उसके समक्ष जो भी पदार्थ आता है उसके ज्ञातृत्व रूप परिणमन का वह कर्ता होता है, वह ज्ञान अन्य ज्ञेयरूप नहीं हो जाता। परन्तु अनादिकालीन आत्मा के साथ ज्ञान-शक्ति के सदृश एक विभावनाम की शक्ति है जिसके कारण आत्मा में मोहनीय कर्म के निमित्त से अनर्थ का मूल मोह उत्पन्न होता है। उसी मोह के उदय में आत्मा विभ्रान्त दशा का पात्र होता है और उस विभ्रान्त दशा में पर में निजत्व की कल्पना कर रागी-द्वेषी होता है और उनके वशीभूत होकर जो अनर्थ करता है वह किसी से छिपा नहीं है। इसी चक्र का नाम संसार है। इस संसार से मुक्त होने के अर्थ सकलपरमात्मा ने एक ही मार्ग निर्दिष्ट किया है। वह है निज स्वभाव का आलम्बन। १. व्यवहारनय से जीव कर्मफल-सुख-दुःख का भोक्ता होता है, निश्चय से अपने ज्ञानदर्शन का भोक्ता है। - द्रव्यसंग्रह गाथा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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