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________________ समयसार होते २८६ सुख-दुःख का अध्यवसाय करने वाला अज्ञानी है २५३ २७५ अध्यवसान के अज्ञानरूप होने का कारण २५४-२५८ २७५-२७७ अध्यवसान ही बन्ध का कारण है २५९-२६१ २७८-२७९ हिंसा का अध्यवसान ही हिंसा है २६२ २७९ अध्यवसान ही पुण्य-पाप के बन्ध का कारण है २६३-२६४ २७९-२८० अध्यवसानभाव ही बन्ध का कारण है, बाह्य वस्तु नहीं २६५ २८०-२८१ अध्यवसानभाव का मिथ्यापन क्यों है? २६६ २८१ अध्यवसानभाव स्वार्थक्रियाकारी क्यों नहीं हैं? २६७-२६९ २८१-२८३ अध्यवसानभाव से रहित मुनि कर्मबन्ध से लिप्त नहीं २७० २८४ अध्यवसानभाव के पर्यायवाचक - एकार्थक शब्द २०१ / २७१ २८४-२८५ art निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है। २७२ अभव्यद्वारा व्यवहारनय का आश्रय किस प्रकार होता है? २७३ २८७ अभव्य का श्रुतज्ञान अकार्यकारी है २७४-२७५ २८७-२८८ व्यवहार और निश्चयनय से ज्ञान-दर्शन-चारित्र का वर्णन २७६-२७७ २८८-२९० रागादिक के निमित्त कारण का कथन २७८-२८२ २९०-२९३ आत्मा रागादिक परिणामों का अकर्ता किस प्रकार है? २८३-२८५ २९४-२९५ द्रव्य और भाव में निमित्त-नैमित्तिकभाव का उदाहरण २८६-२८७ २९५-२९८ मोक्षाधिकार मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार होती है? २८८-२९० ३०० बन्ध की चिन्ता से बन्ध नहीं कटता है २९१ ३००-३०१ मोक्ष का कारण क्या है? २९२-२९३ ३०१-३०२ आत्मा और बन्ध पृथक्-पृथक् किसके द्वारा होते हैं? । २९४-२९७ ३०२-३०७ निश्चय से आत्मा ज्ञाता-दृष्टा है २९८-२९९ ३०७-३१० पर को अपना कौन ज्ञानी मानता है? ३०० ३१०-३११ अपराधी ही शङ्कित होता है ३०१-३०३ ३१२ अपराध का शब्दार्थ ३०४-३०५ ३१२-३१४ प्रतिक्रमणादिक विषकुम्भ हैं ३०६-३०७ ३१४-३१९ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार दृष्टान्तपूर्वक आत्मा का अकर्तापन ३०८-३११ ३२२-३२४ अज्ञान की महिमा का वर्णन ३१२-३१५ ३२४-३२६ अज्ञानी कर्मफल को भोगता और ज्ञानी उसे जानता भर है ३१६ ३२७-३२८ अज्ञानी भोक्ता है और ज्ञानी अभोक्ता है २१७-३२० ३२८-३३० For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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