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समयसार
होता। समयसार की टीका के साथ आपने गाथाओं के अभिप्राय को स्पष्ट अथवा पल्लवित करने के लिए श्लोक भी लिखे हैं जो कलशा के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके संस्कृतटीकासहित तथा मात्र हिन्दी टीकासहित अलग से भी संस्करण प्रकाशित हुए हैं। ये कलशकाव्य इतने लोकप्रिय सिद्ध हुए हैं कि कितने ही महानुभावों के नित्यपाठ में सम्मिलित हो गये हैं। इन्हीं की शैली का अनुकरण कर पद्मप्रभमलधारीदेव ने नियमसार की संस्कृत-टीका लिखी हैं तथा टीका के बाद कलशकाव्य भी।
इन टीकाओं के सिवाय अमृतचन्द्रस्वामी के द्वारा विरचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय तथा तत्त्वार्थसार ये दो ग्रन्थ और मिलते हैं। इन आचार्य ने अपना परिचय किसी ग्रन्थ में नहीं दिया है। यहाँ तक कि समयसार के इस निरूपण का कि 'एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है' इनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा है, जिससे वे समयसार के अन्त में लिखते हैं
स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः। स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति कर्त्तव्यमेवातचन्द्रसूरेः।। २७८।।
अपनी शक्ति से वस्तुस्वरूप को सूचित करनेवाले शब्दों के द्वारा यह समयआगम अथवा समयसार की व्याख्या की गई है। स्वरूप में गुप्त रहनेवाले अमृतचन्द्रसूरि का इसमें कुछ भी कर्तृत्त्व नहीं है।
इसी भाव के श्लोक पञ्चास्तिकाय तथा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अन्त में उपलब्ध हैं।
यह आचार्य अनेकान्त के अनन्यभक्त थे। निश्चय और व्यवहारनय के पारस्परिक विरोध को शमन करने के लिये पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में इन्होंने लिखा है
व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः।।८।।
जो यथार्थरूप में व्यवहार और निश्चय को जानकर मध्यस्थ होता है वही शिष्य देशना के पूर्ण फलको प्राप्त होता है।
ये विक्रम संवत् १००० के लगभग हुए हैं क्योंकि जयसेन के धर्मरत्नाकर में इनके द्वारा रचित पुरुषार्थसिद्धयुपाय के ४९ पद्य उद्धृत हैं। जयसेन ने अपना यह ग्रन्थ वि० सं० १०५५ में बनाया है, ऐसा उसकी प्रशस्ति के
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