________________
प्रस्तावना
xlvii
इस अधिकार में उन्होंने स्याद्वाद के वाच्यभूत अनेकान्त का समर्थन करने के लिये तत्-अतत्, सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेक नयों से आत्मतत्त्व का निरूपण किया है। अन्त में कलश-काव्यों के द्वारा इसी बात का समर्थन किया है। अमृतचन्द्रस्वामी ने अनेकान्त को परमागम का जीव—प्राण और समस्त नयों के विरोध को नष्ट करनेवाला माना हैं। जैसा कि उन्होंने स्वरचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ के मङ्गलरूप में कहा है
परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम्। सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्।। आत्मख्याति टीका के प्रारम्भ में भी उन्होंने यही आकांक्षा प्रकट की है
अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः।
अनेकान्तमयी मूर्तिर्नित्येव प्रकाशताम् ।।२।। अनन्तधर्मात्मक परमात्मतत्त्व के स्वरूप का अवलोकन करनेवाली अनेकान्तमयी मूर्ति निरन्तर ही प्रकाशमान रहे।
इसी अधिकार में जीवत्वशक्ति, चितिशक्ति आदि ४७ शक्तियों का निरूपण किया है जो नयविवक्षा के परिज्ञान से ही सिद्ध होती हैं। इन शक्तियों का विवेचन ग्रन्थ की टीका में किया गया है। इसी अधिकार में उपायोपेयभाव का भी विचार किया है। इसमें एक ज्ञानमात्र आत्मा में ही उपाय और उपेयभाव का समर्थन किया है । वही आत्मा साधक है और वही आत्मा सिद्ध भी है। अन्त में १ स्यादस्ति, २ स्यानास्ति, ३ स्यादस्तिनास्ति, ४ स्यादवक्तव्य, ५ स्यादस्ति अवक्तव्य, ६ स्यानास्ति अवक्तव्य और ७ स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्य इन सात भङ्गों के द्वारा द्रव्य का निरूपण किया है।
संस्कृतटीकाकारों का परिचय अमृतचन्द्रसूरि
समयसार या समयप्राभृत पर दो संस्कृत-टीकाएँ उपलब्ध हैं-एक आत्मख्याति और दूसरी तात्पर्यवृत्ति। आत्मख्याति के रचयिता अमृतचन्द्रसूरि हैं। इन्होंने कुन्कुन्दस्वामी के हार्द (अभिप्राय) को खोलने का पूर्ण प्रयास किया है। कुन्दकुन्दस्वामी के प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय और समयसार पर इनकी टीकाएँ मिलती हैं जो तद्तद् ग्रन्थों के साथ मुद्रित हो चुकी हैं। आप की भाषा पाण्डित्यपूर्ण है। अध्यात्मग्रन्थों की टीका में यदि सरल भाषा का प्रयोग होता तो और भी लाभदायक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org