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________________ प्रस्तावना xlir अन्तिम पद्य से प्रकट है। इस तरह अमृतचन्द्रसूरि १०५५ के पूर्ववर्ती ही हैं, उत्तरवर्ती नही। जयसेनाचार्य तात्पर्यवृत्ति के कर्ता श्रीजयसेनाचार्य है। इनकी टीका की भाषा बहुत सरल और हृदयग्राही है। वास्तव में अध्यात्म-ग्रंथों की टीका ऐसी ही भाषा में होनी चाहिये। इन्होंने कुन्दकुन्द के प्रवचनसार, समयसार और पञ्चास्तिकाय इन तीनों ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी हैं और उनमें निश्चय-व्यवहारनय का ऐसा सुन्दर सामञ्जस्य बैठाया है कि पढ़ते समय हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति की गाथाओं में कहीं-कहीं हीनाधिकता पाई जाती है अर्थात् तात्पर्यवृत्ति में ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जिनकी टीका अमृतचन्द्रसूरि ने नहीं की है। इससे इतना सिद्ध होता है कि इन ग्रन्थों की प्रतियों में पाठभेद बहुत पहले से पाया जाता है। अमृतचन्द्रस्वामी ने अपनी टीका का आधार अन्य प्रति को बनाया होगा और जयसेन ने दूसरी प्रति को। अमृतचन्द्रस्वामी ने छानबीनकर द्विरुक्त अथवा अनावश्यक गाथाओं को छोड़ा है परन्तु जयसेन ने ऐसा नहीं किया। जयसेन बारहवीं शताब्दी के विद्वान् है। इनकी टीका की पद्धति का अनुसरणकर परमात्मप्रकाश और बृहद्रव्यसंग्रह की टीकाएँ तत्तत् कर्ताओं के द्वारा लिखी गयीं। पं० बनारसीदासजी जैनसाहित्य में हिन्दी भाषा का इतना बड़ा अन्य कवि नहीं हुआ। इनका जन्म एक धनी-मानी सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके प्रपितामह जिनदास का साका चलता था, पितामह मूलदास हिन्दी और फारसी के पंडित थे और नरवर (मालवा) में वहाँ के मुसलमान नवाब के मोदी होकर गये थे। इनके मातामह भदनसिंह चिनालिया जौनपुर के प्रसिद्ध जौहरी थे और पिता खड्गसेन कुछ दिनों तक बंगाल के सुलतान मोदी खाँ के पोतदार रहे थे। इनका जन्म जौनपुर में माध सूदी ११ संवत् १६४३ में हुआ था। यह श्रीमाल वैश्य थे। यह बड़े ही प्रतिभाशाली सुधारक कवि थे। शिक्षा सामान्य प्राप्त की थी, पर अदभुत प्रतिभा होने के कारण यह अच्छे कवि थे। इन्होने १४ वर्ष की अवस्था में एक हजार दोहा-चौपाईयों का नवरस नामक ग्रन्थ बनाया था, जिसे आगे चलकर, इस भय से कि संसार पथ-भ्रष्ट न हो, गोमती १. देखो, अनेकान्त वर्ष ८ अंक ३-५। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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