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________________ ४६४ समयसार गाथा गाथा कर्मबन्धन के चार पाये २२९ क्षीणमोह, १३. सयोगकेवली और १४. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग। अयोगकेवली। कषाय १६३ विशेष ज्ञान के लिये जीवकाण्ड का जो आत्मा के चारित्रगुण का घात करे उसे गुणस्थानाधिकार द्रष्टव्य है। कषाय कहते हैं। इसके अनन्तानुबन्धी गुप्ति २७३ आदि १६ भेद हैं। मन वचन कायरूप योगों का अच्छी तरह केवलज्ञान २०४ निग्रह करने को गुप्ति कहते हैं। इसके ३ जो सर्वदव्य और उनकी सब पर्यायों को भेद हैं-१. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति और युगपत् जानता है उसे केवलज्ञान कहते हैं। ३. कायगुप्ति। कारित २२४ (क) चारित्र किसी कार्य को दूसरों से कराना। निश्चय से आत्मस्वरूप में स्थिरता को कृत २२४ (क) चारित्र कहते हैं। व्यवहार से आत्मस्वरूप किसी कार्य को स्वयं करना। में स्थिरता प्राप्त कराने में सहायक व्रत, समिति, गुप्ति आदि को चारित्र कहते हैं। क्रियानय २६६ (क) चिदात्मा २७५ (क) चारित्र के आचरण पर बल देना। चैतन्यस्वरूप आत्मा गर्दा ३०६ जितेन्द्रिय ३१ गुरु की साक्षीपूर्वक दोषों का प्रकट करना गर्दा है। जो स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों को अपने नियन्त्रण में गुण ७५ रखता है वह जितेन्द्रिय है। जो द्रव्य के आश्रय रहे परन्तु दूसरे गुण जीवस्थान GG से रहित हो उसे गुण कहते हैं। ये गुण सामान्य और विशेष की अपेक्षा दो प्रकार जीवों के समस्त भेदों को संगृहीत करना के हैं। जीवसमास है। उसके १४ भेद हैं। यथा-एकेन्द्रिय के बादर और सूक्ष्मी की गुणस्थान अपेक्षा दो भेद, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, मोह और योग के निमित्त से होनेवाले चतुरिन्द्रय और संज्ञी पंचेन्द्रिय तथा असैनी आत्मपरिणामों के तारतम्य को गुणस्थान पञ्चेन्द्रिय इन सात युगलों के पर्याप्त और कहते हैं। इसके १४ भेद हैं-१. मिथ्यात्व, अपर्याप्त की अपेक्षा दो-दो भेद करने से २. सासादन, ३. मिश्र, ४. असंयत १४ जीवसमास होते हैं। जीवसमास के सम्यग्दृष्टि, ५. देशसंयत, ६. ५७ तथा ९८ भी भेद होते हैं। विस्तार के प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. लिये जीवकाण्ड का जीवसमास प्रकरण अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. द्रष्टव्य है। सूक्ष्मसाम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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