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परिशिष्ट
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गाथा
गाथा ज्ञान
२ दर्शन निश्चय से आत्मतत्त्व का संशय, विपर्यय निश्चय से परपदार्थ से भिन्न और अपने
और अनध्यवसाय से रहित ज्ञान गुणपर्यायों से अभिन्न आत्मा की श्रद्धा होना सम्यक्ज्ञान है। व्यवहार से जीवादि दर्शन या सम्यग्दर्शन है। व्यवहार से प्रयोजनभूत पदार्थों में यथार्थज्ञान को जीवादि पदार्थों का श्रद्धान होना सम्यक्ज्ञान कहते हैं। यही ज्ञान जब सम्यग्दर्शन है। दर्शनावरण कर्म के क्षय मिथ्यात्व के उदय से दूषित होता है तब या क्षयोपशम से प्रकट होनेवाला मिथ्याज्ञान कहलाता है।
सामान्यावलोकनरूप दर्शन इससे पृथक ज्ञायकभाव
६ गुण है। जीवादि पदार्थों को जाननेवाला आत्मा का द्वेष
७६ भाव ज्ञायकभाव कहलाता है। जिसमें उत्पाद, व्यय और प्रौव्य पाया ज्ञेय-ज्ञायकभाव
९५ जावे अथवा जो गुण और पर्यायों से जिसे जाना जावे उसे ज्ञेय कहते हैं और सहित हो उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य छह हैजो जाननेवाला है उसे ज्ञायक कहते हैं। १. जीव, २. पुद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ज्ञाननय
२६६ (क) ५. आकाश और ६. काल। जानने पर बल देना।
द्रव्य
२७३ अप्रीतिरूप परिणाम इच्छाओं के निरोध को तप कहते हैं। धर्म
३७ इसके बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो जीव और पुगल के चलने में सहायक द्रव्य। भेद हैं। बाह्य तप अनशन, ऊनोदर, धारणा
३०६ वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवक्त- पञ्चनमस्कारादि बाह्य द्रव्य का आलम्बन शय्यासन और कायक्लेश के भेद से छह कर चित्त को स्थिर करना धारणा है। प्रकार का है। और आभ्यन्तर तप नय
१३ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, जो पदार्थ के एक अंश-परस्पर विरोधी दो व्युत्सर्ग और ध्यान के भेद से छह प्रकार धर्मों में से एक धर्म को ग्रहण करता है वह का है।
नय कहलाता है। इसके अध्यात्म ग्रन्थों में तीर्थकर
२६ निश्चय और व्यवहार के भेद से दो भेद धर्म की आम्नाय को चलानेवाले तीर्थकर किये गये हैं। तथा सामान्यतया कहलाते हैं। ये प्रत्येक अवससर्पिणी और द्रव्यानुयोग में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक उत्सर्पिणी में चौबीस-चौबीस होते हैं। भेद किये गये हैं। इन्हीं दो नयों के नैगम, त्रिविध उपयोग
९५ संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द और मिथ्यादर्शन, अज्ञान और अविरति। समभिरूढ भेद होते हैं। अन्य ग्रन्थकारों ने
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तप
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