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________________ (५) (६) (७) स्याद्वादाधिकार ४३७ स्वद्रव्य - क्षेत्र - काल-भाव और युगपत् स्व-परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य है तथा अवक्तव्य है । परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तथा युगपत् स्व-परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य नहीं है और अवक्तव्य है। स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव के क्रम की अपेक्षा से तथा युगपत् स्व-परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य है और नहीं है तथा अवक्तव्य है । भावार्थ- द्रव्य में अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्यत्व के भेद से तीन धर्म हैं। इन तीन धर्मों का पृथक्-पृथक् तथा संयोगरूप से कथन करने पर सात भङ्ग होते हैं। जिस समय स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य के अस्तित्व का कथन होता है उस समय 'स्यादस्ति द्रव्यम्' ऐसा पहला भङ्ग होता है अर्थात् स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से द्रव्य है । जब परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य का कथन होता है तब 'स्यान्नास्ति द्रव्यम्', ऐसा दूसरा भङ्ग होता है । जब क्रम से स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव तथा परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से कथन करते हैं तब ‘स्यात् अस्तिनास्ति द्रव्यम्' यह तीसरा भङ्ग होता है अर्थात् द्रव्य है और नहीं है । जब स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल - भाव तथा परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से एक साथ कहना चाहते हैं तब कथन न किये जा सकने के कारण 'स्यात् अवक्तव्यं द्रव्यम्' ऐसा चौथा भङ्ग होता है अर्थात् द्रव्य अवक्तव्य है। जब स्वद्रव्य - 8 - क्षेत्र - काल-भाव और एक साथ स्व-परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की अपेक्षा से कथन करते हैं तब 'स्यादस्ति च अवक्तव्यं च द्रव्यं' यह पाचवाँ भङ्ग होता है अर्थात् द्रव्य है और अवक्तव्य है। जब परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव तथा एक साथ स्व-परद्रवय-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा कथन करते हैं तब 'स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यम्' यह छठवाँ भङ्ग होता है अर्थात् द्रव्य नहीं है और अवक्तव्य है । तथा जब क्रम से स्वद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव तथा एक साथ स्व-परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से कथन करते हैं तब 'स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यम्' यह सातवाँ भङ्ग होता है अर्थात् द्रव्य है, नहीं हैं और अवक्तव्य है। तीन धर्मों के पृथक्-पृथक् तीन और दो-दो के संयोगी तीन तथा तीन संयोगी एक सब मिलाकर धर्म सात से अधिक नहीं होते, इसलिये सब भङ्ग सात ही होते हैं अधिक नहीं, 'सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गी' इस तरह समास करने पर 'सप्तभङ्गी' शब्द निष्पन्न होता है । इस तरह स्याद्वादाधिकार पूर्ण हुआ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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