SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३६ समयसार भावार्थ- यहाँ लुप्तोपमालंकार से आत्मा को अमृतचन्द्रज्योति कहा है क्योंकि 'अमृतचन्द्रवत् ज्योति:' ऐसा समास करने से 'वत्' शब्द का लोप हो जाता है तब 'अमृतचन्द्रज्योति:' बनता है। यदि 'अमृतचन्द्ररूपज्योति' ऐसा विग्रह किया जाय तो भेदरूपक अलंकार होता है। अथवा 'अमृतचन्द्रज्योतिः' ऐसा ही कहा जाय, आत्मा का नाम न कहा जाय तब अभेदरूपक अलंकार होता है। इसके विशेषणों के द्वारा चन्द्रमा से व्यतिरेक भी है क्योंकि 'ध्वस्तमोह' विशेषण अज्ञानान्धकारक का दूर होना बतलाता है, 'विमलपूर्ण' विशेषण लाञ्छनरहितपन तथा पूर्णता बतलाता है, 'नि:सपत्नस्वभाव' विशेषण राहुबिम्ब तथा मेघ आदि से आच्छादित न होना बतलाता है तथा 'समन्तात् ज्वलतु'-विशेषण सब क्षेत्र और सब काल में प्रकाश करना बतलाता है। चन्द्रमा ऐसा नहीं है। यहाँ टीकाकार ने 'अमृतचन्द्र' ऐसा श्लेष से अपना नाम भी सूचित किया है।।२७५।। अनुष्टुप् मुक्तामुक्तैकरूपो य: कर्मभिः संविदादितः। अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्तिं नमाम्यहम्।।१।। अर्थ- जो कर्मों से मुक्त है तथा ज्ञनादिगुणों से अमुक्त है उस अविनाशी ज्ञानमूर्ति परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। अब द्रव्य की अपेक्षा सप्तभङ्गी का अवतार करते हैं (१) स्यादस्ति द्रव्यम्। (२) स्यानास्ति द्रव्यम्। (३) स्यादस्ति नास्ति च द्रव्यम्। (४) स्यादवक्तव्यं द्रव्यम्। (५) स्यादस्ति चावक्तव्यं च द्रव्यम्। (६) स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यम्। (७) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यम्। इनमें सर्वथापन का निषेध करनेवाला, अनेकान्त अर्थ का द्योतक, कथञ्चित् अर्थवाला निपातसंज्ञक ‘स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है। इन सातों भङ्गों का सार इस प्रकार है(१) स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य है। (२) परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य नहीं है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव का द्रव्य में अभाव है। (३) क्रम से स्व-परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से द्रव्य है और नहीं है। (४) स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तथा परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से युगपद् कहे जाने की अशक्यता की अपेक्षा से द्रव्य अवक्तव्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy